Hindi Writing Blog: जुलाई 2022

शनिवार, 2 जुलाई 2022

खुद का वजूद तलाशती नारी

 

Women-Existence

ज़िद थी हमें आसमां को छूके आने की,

पर पलकों पर ख्वाबों को सजाने से भी डरते हैं,

कहीं पर कतर न दे कोई उड़ते परिंदे का,

यही दर्द जमाने से छिपाये फिरते हैं,

रोशनी बिखरकर आएगी एक दिन राहों में हमारी,

बस इसी एक उम्मीद पर,

खुद का वजूद खुद में गुमाए फिरते हैं।

ज़िद थी हमें आसमां को छूके आने की

                        (स्वरचित रश्मि श्रीवास्तव “कैलाशकीर्ति)

राधा ओ राधा!, जरा मुझे एक कप चाय दे दो – मुझे आज ऑफिस जल्दी निकलना है। अभी सुबह के पाँच ही तो बजे हैं, साढ़े चार बजे की अलार्म क्लॉक पर उठी राधा की दिनचर्या हर रोज कुछ ऐसे ही शुरू होती है। पतिदेव की मॉर्निंग टी की फरमाइश, तो ससुर जी के लिए पेपर और चश्मा ढूंढकर देने की, सासू माँ के नहाने का गरम पानी क्योंकि उन्हें सुबह सवेरे नहाँ धोकर राधा-कृष्ण की पूजा जो करनी है साथ ही रिंकू-पिंकी का स्कूल बैग-लांच बॉक्स – सबकुछ किसी सुपर वूमेन  की तरह निपटाती राधा को ठीक नौ बजे स्कूल पहुंचना है, आज स्कूल में प्रिंसिपल मैम के साथ उसकी मीटिंग है जिसमें क्लास टीचर होने के नाते क्लास के तमाम बच्चों की monthly प्रोग्रेस उनसे शेयर करनी है। एक अकेली राधा और उसके समर्पण, प्रेम, त्याग और निस्वार्थ भावनाओं की रसलहरियों से सिंचित होता घर का आँगन और उस घर के आँगन से बाहर निकलकर आशाओं, कुछ कर गुजरने की उसकी कोशिशों तथा खुद के वजूद को इस बदलते समाज के साथ फिट बैठाने की उसकी जिद ने उसे घर की चार-दीवारी से बाहर निकालकर समाज के उस वृहद दायरे में लाकर खड़ा कर दिया है जहां कामकाजी चुनौतियों के साथ संतुलन बनाकर उसे हर पल, हर क्षण एक स्त्री होने के एहसास को जिंदा बनाए रखने के लिए मजबूर कर दिया जाता है।

वर्तमान परिस्थितियों में technology से भरी इस 21वीं सदी में भी इस दुनिया ने स्त्रियों के अस्तित्व और उनकी सकारात्मक ऊर्जा को स्वीकारने में कहीं न कहीं एक लचर रवैया अपना रखा है। जब कभी भी पुरुष संग स्त्री समानता की बात आती है तो ये सब बातें सिर्फ कुछ खाली उँगलियों से निकले शब्दों तक आकर सिमट जाती हैं, जो किताबी बातों के अलावा ज्यादा कुछ नहीं। वरना रोज़मर्रा की जिंदगी में तो आज भी घर के अंदर और बाहर का सामंजस्य बनाए रखने की ज़िम्मेदारी स्त्रियों पर ही है। बने-बनाए करियर को छोड़कर अगर पारिवारिक जिम्मेदारियों को संभालने की बात हो तो वहाँ भी ये समाज दृढ़ होकर स्त्री मंशा से ही हाँ की उम्मीद लगाता है। न जाने क्यों ऐसा है? अच्छे पदों पर कार्य कर रही महिलाओं को भी घर के फैसलों में निर्णायक बने रहने की भूमिका बामुश्किल ही मिल पाती है।

कभी तो नारी मन को एक पल ही लगता है उसने जीवन में सबकुछ हासिल कर लिया, वहीं दूसरे पल उसे इस बात का एहसास भी होता है कि उसका अपना तो कुछ है ही नहीं। कितनी अजीब है न इन सामाजिक रिश्तों की कशमकश? आज के इस आधुनिक समाज ने इतना तो साबित कर दिया है कि स्त्रियों को विधाता ने सृष्टि संतुलन की ऐसी कला दी है जो सफलतापूर्वक वो जीवन के हर मोर्चों पर निभाती है – कभी एक बेटी बनकर तो कभी पत्नी, बहू, और माँ बनकर लेकिन इन सबके बावजूद एक प्रश्न जो आज भी स्त्री समाज के लिए लाख टके का है कि इन सभी सफल मोर्चों पर लड़ते-लड़ते क्या उनका स्वीकरण इस समाज द्वारा उसी प्रकार हो पाया है जैसा पुरुषों का? आखिर क्यों जब त्याग और बलिदान की बात आती है तो सारा समाज मिलकर स्त्री जाति की ओर ही उंगली करता है, पुरुषों की ओर क्यों नहीं? और ताज्जुब तो इस बात का है कि इन उँगलियों में पुरुषों के साथ कुछ उँगलियाँ स्त्रियों की भी हैं? ऐसा क्या है जो नारी आज भी अपना सर्वस्व देने के बाद भी अपने ही वजूद को अपने में ही तलाशने के लिए मजबूर है।

 आशा बस इस बात की है कि नारी और पुरुष के संतुलन का संदेश देती प्रकृति की बातें हमारी रोज़मर्रा की जिंदगी में लागू हों और स्त्रियों को वो मिले जिसकी वो हकदार हैं।

            दोस्तों, ये थी मेरी एक ऐसी रचना जो मेरे परिवेश के इर्द-गिर्द हर दिन घटती है। मैं कुछ कर तो नहीं सकती पर अपनी लेखनी के माध्यम से एक बात जरूर आप से साझा कर सकती हूँ कि आगे बढ़कर स्त्रियों को सम्मान देने की शुरुआत करें ताकि संसार के लिए सकारात्मक उर्जाओं का एक नया दौर आरंभ हो सके। फिर देखिये नारी की उस उड़ान को जिसे वो अपने दर्द के पीछे छिपाकर रखती आई है।

          आज के लिए बस इतना ही अगले अंक में फिर मिलेंगे तब तक के लिए जय हिन्द, जय भारत!!!