अटूट
है रिश्तो का बंधन,
अमिट है स्वरूप ये|
समय के वेग मे सहज हो,
रिश्तों का प्रारूप ये||
("कैलाश कीर्ति (रश्मि)" द्वारा रचित)
वृद्धावस्था यानि मानवीय जीवन चक्र का वो पड़ाव जहाँ पहुँचकर
मनुष्य जीवन और समाज से जुड़े सभी उतार-चढ़ावों से गुजरकर पूर्ण परिपक्व बन चुका
होता है, परंतु
प्रकृति प्रदत्त इस अवस्था तक पहुँचने के लिए उसे बाल्यावस्था, किशोरावस्था
और युवावस्था की सीढ़ियों से होकर गुजरना पड़ता है जहाँ जिंदगी हर पल कुछ नया सिखाती
जाती है|
ऐसे मे पूरी जिंदगी का तजुरबा हासिल कर चुके इन बुजुर्गों
पर पिछले साल “वर्ल्ड एल्डर एब्यूस अवयरनेस डे” के अवसर पर “हेलपेज
इंडिया” द्वारा कराये गए सर्वे ने जब ये बताया कि भारत मे
बुजुर्गों के साथ भी बहुत शर्मनाक व्यवहार होने लगा है तो इस बात ने मेरी
अंतरात्मा को झकझोर कर रख दिया कि क्या यही हैं हमारे भारतीय मूल्य जिनपर हम विश्व
गुरु होने का दम भरते हैं परंतु जब मेरे मन ने इनका मूल्यांकन प्रारम्भ किया तो
मेरे सामने बहुत सारे चीजें भी निकलकर सामने आयी कि क्या आज की युवा पीढ़ी अपने
बुजुर्गों के साथ जो व्यवहार कर रही हैं वो उनकी “मंशा है या
फिर मजबूरी”?
मंशा और मजबूरी के बीच एक बारीक सा फासला है जिसमे आज की
भाग दौड़ और प्रतिस्पर्धा से भरी जिंदगी का भी काफी योगदान है जिसने बुजुर्गों को
ये सोचने पर मजबूर कर दिया है कि शायद उम्र के पड़ाव पर उनके अपने उनके साथ ऐसा
जानबूझकर कर रहे हैं|
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें