हवाएं भी न कुछ ख़ास हैं ||
न जाने क्यों हमीं ने ही |
बदल दी है तस्वीर धरती की ||
स्वर्ग सी हो यही धरती |
गगन भी श्वेत स्यामल हो ||
हवाओं का भी रुख बदले |
फिजाएँ भी तो निर्मल हों ||
("कैलाश कीर्ति (रश्मि)" द्वारा रचित)
हाल ही में देश की राजधानी दिल्ली से
आयी इस खबर ने कि -"यह स्वास्थ्य की आपात
स्थिति है, क्योंकि शहर व्यवहारिक रूप से गैस चैम्बर में बदल
गया है" ने हम सभी को एक पल के लिए ही सही ये सोचने पर जरूर मजबूर कर दिया कि
अगर हवाओं में घुले इस जहर की आज ये स्थिति है तो आने वाले समय में क्या होगी? और हमारे सामने जी
रही नयी पीढ़ी का क्या होगा-वगैरह-वगैरह...
जब कभी भी कोई समाचार हमारे देश या हमारे स्वास्थ्य से जुड़ा मिलता है तो हम एक पल के लिए ही सही काफी जागरूक हो जाते हैं पर अगले ही पल उसी के विरुद्ध कार्य करने में कोई कसर नहीं छोड़ते शायद ऐसा ही कुछ हमने अपने पर्यावरण के साथ भी किया है जिसका खामियाजा आज शुद्ध हवा के लिए तरसती हमारी एक-एक साँसों को भुगतना पड़ रहा है|
हमने विकास और आधुनिकता की चाह में पूरी पृथ्वी को ही असंतुलन की भेंट चढ़ा दिया है| हम मानवों की महत्वाकांक्षाओं की असीमित सीमाओं ने अगर कभी कुछ अच्छा करने के लिए प्रेरित भी किया तो अगले ही पल हमारे मन में पलते लालसा के भाव ने हमें पीछे धकेल दिया|
आज हमारे समाज में बहुत सारे संगठन, सरकार सभी पर्यावरण प्रदूषण की भेंट चढ़ती प्राण-वायु (ऑक्सीजन) को संभालने में लगे हैं, ऐसे में इस समाज से जुड़े होने के नाते हम सभी का ये कर्तव्य बनता है कि इनकी इस पहल में हम इनका साथ दें और अपनी धरा को जहरीली हवा के दमघोंटू आवरण से मुक्त करायें ताकि न केवल हम अपना वर्तमान सवारें अपितु अपनी पीढ़ियों को सौपें जाने वाले भविष्य के संरक्षक का दायित्व भी बखूबी निर्वाहित कर सकें|
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