छूट
गए सब रिश्ते नाते |
टूट
गया वो बना घरौंदा ||
कुछ
रिश्तों की डोर संभाले |
जाने
हम आ गए कहाँ ||
जाने
हम आ गए कहाँ…
("कैलाश कीर्ति (रश्मि)" द्वारा रचित)
21वीं सदी मे दस्तक दे चुकी मानवीय सभ्यता को खुद मानव निर्मित इतिहास ने इतना कुछ दिया था कि उन्ही पर हम अपना भविष्य संवार रहे हैं| आज हम सभी आगे बढ़ने और समाज मे एक मुकाम हासिल करने की प्रतिस्पर्धा मे जुटे हैं पर जब इन सब से परे होकर कभी शांत चित्त से अकेले मे बैठते हैं तो हमारा मन वही पुराने शोरगुल के लिए तड़पने लगता है जो कभी हमारे दादा-दादी, नाना-नानी, चाचा-चाची, ताई-ताऊ, भाई-बहन आदि जैसे अनगिनत रिश्तों के बीच मिलता था, इतनी हलचल… के बावजूद दिल मे सुकून था जो आज की इस आपा-धापी मे कहीं खो गया है|
पहले
भी इस धरा पर रहने वालों को दिन-रात के चौबीस घंटे ही मिलते थे और आज भी उतने ही
मिलते हैं फिर भी वो कम ही लगते हैं क्योंकि हमने अपने आप को काम के सिलसिले मे
इतना व्यस्त कर लिया है जिसके चलते परिवारों को छोड़ हमने अपनी अलग दुनिया बना ली
है और परिवारों से अलग होने पर मिले इसी एकाकीपन के चलते स्ट्रेस, डिप्रेशन जैसी
लाइलाज बीमारियों ने हमें अपना शिकार बना लिया हैं|
क्या कभी हम सब ने ये सोचा है कि हमें ऐसा क्यों महसूस होता है? तो उत्तर है- सोचा तो हम सभी ने पर अब चीज़ें हमारे एकाधिकार से बाहर हो चली हैं, शायद सत्यता भी यही है कि हमारे मन के कोने मे आज भी संयुक्त रूप से जुड़े परिवारों की परंपरागत यादें हिलोरें तो मारती हैं पर हम सब ने खुद अपने को उनसे दूर कर रखा है ऐसे मे अब हमें खुद ही आगे आना होगा ताकि जो हमें न मिला वो हम अपनी भावी पीढ़ियों को तो दे सकें|
Nice article
जवाब देंहटाएं