ये करके क्या मिलेगा? यूं तो ये सुनने, पढ़ने और बोलने में बिल्कुल सीधा सा वाक्य है, जिसे अक्सर हमारे द्वारा या हमारे इर्द-गिर्द
लोगों द्वारा प्रायः बोला या सुना जाता है, लेकिन क्या कभी हम सब ने इस छोटे परंतु गहराई से भरे वाक्य का अर्थ समझने
की कोशिश की है? नहीं ना! क्योंकि ये है ही इतना साधारण।
परंतु असाधारण बात तो तब होती है जब इसमें छुपी नकारात्मकता हमारे सामने असफलता का
प्रारूप लिए आ खड़ी होती है।
हम जब
बाल्यावस्था में होते हैं तो हमारे माता-पिता जब हमसे कहने को कहते हैं तब हम
हमेशा यही कहते हैं – “आप ये करने को मुझसे कह तो रहे हैं, पर मुझे ये करके क्या मिलेगा?” ऐसा कहते वक्त तो
कभी-कभी तो हम कुछ सोचते भी नहीं, बस कह जाते हैं क्योंकि हम
उसे करना नहीं चाहते या फिर उसे करने में हमें हमारा कोई फायदा दिखलाई नहीं देता।
शायद, यही कारण है कि कार्य को करने के बाद मिलने वाले
सकारात्मक परिणाम को सोचे बिना ही हम पहले से ही हार मान लेते हैं कि अगर मैंने ये
कर भी लिया तो मुझे क्या हासिल होगा?
दोस्तों, आज कि उपर्युक्त विषय पर चर्चा मेरे लेखन के अल्पविराम के बाद आप तक
पहुँच रही है। कुछ दिनों पूर्व आप मित्रों की मेरे ब्लॉग में अनुपस्थिति और
सकारात्मक टिप्पणियाँ प्राप्त न हो पाने के घटनाक्रम ने मेरे भी मन मस्तिष्क में
इस भावना को आकार दे दिया कि “अरे छोड़ो! ये करके क्या मिलेगा?” लिहाजा मैंने छोड़ दिया। लेकिन तत्कालीन वैश्विक और राष्ट्रीय स्तर के
महत्वपूर्ण विषयों को छोड़कर आज के इस विषय को चुनना और आपके साथ इससे जुड़े विचारों
को साझा करने के पीछे शायद मेरा अभिप्राय अपने अनुभव से आप तक उन बातों को
पहुंचाना है जो इस छोटे से वाक्य के पीछे है और सच्चाई जितना ही कड़वा है क्योंकि
जिस प्रकार सच सुनने/बोलने की क्षमता हर किसी में नहीं होती उसी प्रकार कुछ कर
गुजरने का माद्दा भी ईश्वर सिर्फ इंसानों को ही देता है। ऐसे में लक्ष्य स्पष्ट हो
तो पीछे हटना कायरता के सिवा कुछ भी नहीं। कुछ करके हमें क्या मिलेगा, वो तो कार्य की परिणति के बाद का परिणाम तय करता है। परंतु, बिना किए ही उससे हार मान लेना अपनी कमजोरियों को छिपाने के अतिरिक्त कुछ
भी नहीं। श्रेष्ठ और श्रेष्ठतम के बीच बस फासला चंद शब्दों का नहीं है बल्कि एक
पूरी शृंखला ही इससे जुड़ी है। कार्य को करना, उसे सफलता की
ओर लेकर जाना, ये कर्म करने की एक ऐसी कसौटी है जिसकी चेतना
सृष्टि में मौजूद सभी जीवंत रचनाओं को प्राप्त है।
जब एक
चिड़िया तिनका-तिनका जोड़कर अपना घोसला बनाती है तो ये नहीं सोचती कि ये करके क्या
मिलेगा? जब तलहटी में लगे पानी को ऊपर लाने के लिए कौआ किसी पात्र (बर्तन) में
कंकड़ के अनगिनत टुकड़े डालता है तो वो ये नहीं सोचता की उसे ये करके क्या मिलेगा, उसके सामने तो बस एक ही लक्ष्य होता है कि पानी बाहर आए और उसे पी कर वो
अपनी प्यास बुझाए।
दोस्तों, कर्म और कर्महीनता दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। अगर हम कर्म को
स्वीकार करते हैं तो ये संसार हमें कर्मठ कहकर हमारी प्रशंसा करता है और अगर हम
कर्महीनता को स्वीकारते हैं तो आलसी कहकर हमें धिक्कारा जाता है। चुनाव हम पर ही
है, क्योंकि सृष्टि ने हमें विवेकशीलता का एक मूर्धन्य आवरण
का चोला हमारे मस्तिष्क पर डालकर हम इन्सानों को ही इस संसार को चलायमान रखने का
भार सौंपा है। ऐसे में घर के छोटे कामों से लेकर जिंदगी के बड़े फैसलों के लेने तक
अगर ये वाक्य कि “ये करके क्या मिलेगा?” जिंदगी में शामिल
हुआ तो समझ लीजिये इसने हमारी चेतना और हमारे वजूद को चुनौती दे डाली है क्योंकि
ये वही सोच है जो हमारे कर्म का रास्ता रोकने को तैयार बैठी है।
इसीलिए, गीता में स्वयं भगवान श्री कृष्ण ने कर्म को परिभाषित करते हुए कहा –
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोsस्तवकर्मणि॥2.47॥
गीता के
संदेश को जब-जब हम अपने मस्तिष्क से जोड़ेंगे तब-तब हम ये पाएंगे
“करके
ही सब मिलेगा वरना कुछ न मिलेगा”
दोस्तों, आपसे अपने विचार साझा करके मुझे हार्दिक प्रसन्नता होती है। आपकी
सकारात्मक टिप्पणी मेरी प्रेरर्णा है, इन्हें बनाए रखिए। आज
के अंक में बस इतना है। अगले अंक में फिर मिलेंगे तब तक के लिए जय हिन्द, जय भारत!!!
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