मौन कर दी है लेखनी…
जगा दो इस समाज को,
कलंक बन चुके हैं जो,
मिटा दो इनका अक्स तुम,
बस इस समाज से,
निर्द्वंद से हैं घूमते,
समाज के ये भेड़िये,
धधक रही है अग्नि सी,
चेतना मूर्छित किए,
क्यूँ हुआ, कैसे हुआ
ये अब सोच से भी, है परे
ज्ञान की ज्योति का,
इन पर नहीं असर कोई,
इन्हें तो बस चाहिए, वेदना ही वेदना
ना कोई संवेदना,
मिटा दो इनका अक्स तुम,
बस इस समाज से......(रश्मि श्रीवास्तव
“कैलाशकीर्ति”)
मन के हर कोने को झकझोरती प्रियंका
की यादें बस चीत्कार कर हम कलम के योद्धाओं को एक ही आवाज दे रही है, बस अब बहुत हुआ ये सबकुछ, लिखने-लिखाने से परे हटकर, आओ हम सब मिलकर समाज की इस वीभत्सता को रोकने के लिए हर पल एक आंदोलन चलाएँ
ताकि रुक जाए, ये सबकुछ किसी भी तरह बस रुक जाए...
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