“जीना अपने
ही में एक महान कर्म है!
जीने
का हो सदुपयोग या मनुज धर्म है!
अपने
ही में रहना प्रबुद्ध कला है!
जग
के हित रहने में सबका सहज भला है!
जग
का प्यार मिले जन्मों के पुण्य चाहिए!
जग
जीवन को प्रेम सिंधु में डूब थाहिए!
ज्ञानी
बनकर मत नीरस उपदेश दीजिये!
लोक
कर्म भाव सत्य प्रथम सत्कर्म कीजिये!”
दोस्तों, महान छायावादी कवि सुमित्रानंदन पंत जी की ये पंक्तियाँ हमारे कानों को
अपनी स्वर मधुरिमा से गुंजायमान करती हैं तो हमारे इस जीवन को पाने और उसे जी लेने
दोनों के मायने बड़ी ही सरल भाषा में हमें समझा जाती हैं। फिर, आखिर ऐसा क्यों होता है जो हम इस जीवन से मिली हर एक सीख (नसीहत) को पल
भर में भूल इस दुनिया से अपने अस्तित्व को मिटा देने पर आमादा हो जाते हैं, माना कि 2020 के जिस दौर को हम जी रहे हैं उसमें धरती पर फैली COVID-19
की इस बीमारी ने दुनिया के अनगिनत लोगों की जीवन शैली में एक बड़ा
फेरबदल दर्ज करा दिया है। कहीं किसी ने अपनों को खोया है तो कहीं किसी ने जीवन को
सहारा देती आजीविका के साधन(रोजगार और नौकरी) को लेकिन जीवन में घटते इन घटनाक्रमों
का ये मतलब तो कत्तई नहीं है कि जैसी जिंदगी हमारी आज है वैसी हमेशा से थी या आगे
हमेशा ऐसी बनी रहेगी।
दोस्तों, Lockdown और खुद को COVID-19
से सुरक्षित रखने की इस मुहीम ने जहां एक ओर हमें घरों में रहने को मजबूर कर दिया
है वहीं दूसरी ओर हमारे सोचने और समझने की क्षमता पर भी भरपूर असर डाला है, नतीजन डांवाडोल होती इस समकालिक मानसिक स्थिति में हम में से कितनों को
आत्महत्या जैसे रास्ते बड़े सहज नज़र आ रहे हैं, चाहे फिर वो Bollywood फिल्म छिछोरे में suicide का विरोध करते एक पिता की
भावना का सशक्त किरदार निभाने वाले सुशांत सिंह राजपूत का मामला हो या फिर 16
वर्षीय TikTok स्टार सिया कक्कड़ और संध्या चौहान का, इस कड़ी में शामिल हुए और नामों में कन्नड़ अभिनेता सुशील गौड़ा और सुशांत
सिंह राजपूत और वरुण शर्मा की Manager रही दिशा शालियान भी हैं।
दोस्तों, इन सभी ने जीवन जीने के इस महान कर्म को बीच धारा
में छोड़ खुद को ही इससे अलग कर लिया। ये तो वो चंद नाम हैं जिन्हें हमारा समाज
लोकप्रियता के चलते जान पाया और अगर गुमनाम नामों का जिक्र करें तो ये आकड़ें हमें
ये सोचने पर मजबूर करते हैं कि आखिर क्यों लोग आत्महत्या के रास्ते को इतनी आसानी
से सहज मान बैठते हैं और छोड़ जाते हैं अपने पीछे सवालों की वो भंवर जिसमें उत्तर
की कोई संभावना दूर-दूर तक नहीं दिखाई देती।
आखिर क्यों
हम इस जीवन के लिए मिले मूल मकसद को भूल भौतिक संसाधनों की पकड़ और समाज में रुतबा
कायम करने की होड़ में अपना सर्वस्व गंवा देते हैं जिसके चलते पूरे विश्व में हर
साल 8,00,000 से 10,00,000 लोग हर वर्ष आत्महत्या कर जीवन खत्म
कर देते हैं। ये वो अनुत्तरित प्रश्न है जिसका जवाब पाने की इच्छा हम में से
कितनों को हर पल व्यग्र (बेचैन) करती रहती है और जब हम इनके उत्तर सकारात्मक
ऊर्जाओं (Positive Energy) के वशीभूत
होकर ढूंढ़ते हैं तो ही जान सकते हैं कि वास्तविकता चाहे जितनी कड़वी हो उससे हमें
लड़कर जीतना चाहिए न कि उसे मिठास में बदलने की चाह में हम आत्महत्या जैसे निरर्थक
कदम उठा लें, जिसमें हम हत्या तो मात्र अपने शरीर की कर पाते
हैं लेकिन आत्मा वो तो इससे निकलकर न जाने कब तक हमारे द्वारा खुद ही इस सुंदर
जीवन को नष्ट करने का उत्तर मांगती रहती है।
दोस्तों, समय, काल, परिस्थिति चाहे
जैसी हो उम्मीद का दामन तब तक नहीं छोड़ना चाहिए जब तक हमारे अंदर इनसे लड़ने का हौसला
न खत्म हो जाये आ हौसला वो तो तभी खत्म होगा जब हम अपने मन को ही हारने पर विवश कर
दें और ऐसा हमें कभी होने नहीं देना है।
दोस्तों, बड़ा ही दुखद होता है जब हम किसी जीवन को इस तरह असमय खोते देखते हैं और उसके
जाने के बाद शुरू होता है हमारा चिंतन क्यों, कब और कैसे का, फिर चाहे क्यों न अभी चंद मिनट पहले हम खुद ही उसी भंवर में उलझे रहे हों।
दोस्तों, हमारे मन की सोच और विचार दुनिया की वो 2 प्रबल चीजें
हैं जिन्होने ये पूरी दुनिया बना दी है। इसलिए हम चाहे जितनी भी मुश्किल में क्यों
ना हों हमें इस धरती के अतीत और वर्तमान दोनों को सकारात्मकता के चश्में से ही देखना
चाहिए और अपने अंदर की ऊर्जा को महसूस करते हुए जिंदगी को हरिवंश राय बच्चन जी की इन
पंक्तियों जैसा कुछ इस तरह जीना चाहिए –
“कभी
फूलों की तरह मत जीना
जिस
दिन खिलोगे बिखर जाओगे
जीना
है तो पत्थर बनकर जियो
किसी
दिन तराशे गए तो खुदा बन जाओगे”
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