Hindi Writing Blog: पक्षियों पर मँडराए खतरे के बादल!!!

सोमवार, 18 जनवरी 2021

पक्षियों पर मँडराए खतरे के बादल!!!

पक्षियों पर मँडराए खतरे के बादल

 















दोस्तों, अभी हाल के कुछ दिनों में अचानक Bird Flu (H5 N1) के चलते प्रवासी पक्षियों समेत स्थानीय पक्षियों के मृत शरीरों के पाये जाने की तस्वीरों ने हमें एक बार फिर यह सोचने पर मजबूर कर दिया है कि आखिर इन पक्षियों के साथ ऐसा क्यों हो रहा है? कहीं इसके पीछे किसी विषाणुजनित बीमारी के अलावा हम इंसानों से होने वाली कोई चूक तो नहीं? इस सवाल के जवाब की तलाश में अगर हम आगे बढ़ें तो ऐसे ढेरों तथ्य हमारे सामने निकलकर आते हैं जिनके पीछे इंसानों की भी भूमिका इन पक्षियों की दुर्दशा के लिए काफी हद तक जिम्मेदार नजर आती है, आज इनके इस तरह मृत (dead) पाये जाने के पीछे भले ही Bird Flu है लेकिन global warming,जैसे और भी कई कारक हैं जो इंसानों के विकासवादी प्रवृत्ति का परिणाम हैं।

दोस्तों, मेरा मानना है कि इस सृष्टि के संतुलन को बनाए रखने के लिए इस धरती पर प्रत्येक जीव का सकुशल तरीके से जीवित रहना अनिवार्य है लेकिन समय की भाग-दौड़ और आगे बढ्ने के चाह ने प्रकृति के साथ घुलमिलकर रहने वाली चिड़ियों की चहचहाहट को गुम सा कर दिया है।

अभी हाल ही में कानपुर के चिड़ियाघर में Bird Flu से बाकी पक्षियों को बचाने की कवायद में अनेकों पक्षियों को मार दिये जाने का आदेश या फिर पतंग के माँझों, कारखानों और फैक्ट्रियों से उठते धूओं, मोबाइल टावरों से निकालने वाले रेडिएशनों जैसे अनगिनत कारणों के चलते इनके प्राणों की आहुति का ये सिलसिला कहाँ जाकर खत्म होगा ये तो नहीं पता लेकिन पक्षियों से जुड़े  इस संवेदनशील विषय की ओर आप सभी का ध्यान आकर्षित करने की मेरी एक छोटी सी कोशिश मेरी कविता के माध्यम से......उम्मीद बस इतनी सी कि इन्हें इनकी खुशहाल दुनिया हमेशा वैसी ही मिले जैसी प्रकृति ने उन्हें दी है:

 

“कलरव करती ध्वनि का मंजर,

          देता है संदेश ।

सृष्टि सरस है जीवन माया,

द्वेष-कलेश की अजब है छाया ।।

प्रणत हो रही धरती सारी,

  रास-रंग कुछ काम न आया ।  

चीख-चीख कहती ये वसुधा,

मानव! अब तक तू संभल न पाया ।।

घर-घरौंदे तूने बनाए,

  जख्मों को तूने झुलसाया ।  

समझ न आई तुझको ये पीड़ा,

कहाँ चोट खाई थी तूने,

  जो इनको तूने तड़पाया

उजड़ गए सब घर और घोंसले,

  निर्जीव बने ये तड़प रहे ।

धरती की इस पीड़ा में तुझको,

 कुछ क्यों रास न आया ।।

निर्मम तेरे मन की सोच,

   जो तूने इनको भटकाया ।  

सूखा दिये सब जंगल सारे,

छीन लिए नदियों के जल ।।

बना बिल्डिंगें सोच रहा तू,

निपट लूँगा इनसे मैं कल ।

कल भी तेरा यही लिखेंगे,

जो न अब चेतोगे तुम!

भूल जाओ अब रथ दौड़ाना,

बगिया के सब फूल खिलाओ ।  

शाखाओं पर चहकें पक्षी,

ऐसे जंगल फिर से उगाओ ।।  

सहज होंगी तेरी राहें,

इस कलरव को सुन-सुनकर ।  

बिहस उठेगा मन का आँगन,

                           संवरेगा आगामी कल ।।

                          कलरव करती ध्वनि का मंजर...

                   स्वरचित रश्मि श्रीवास्तव “कैलाश कीर्ति”


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