Hindi Writing Blog: मनोरंजन (Entertainment) की आज की ये दुनियाँ confusing तो नहीं…

रविवार, 28 जुलाई 2019

मनोरंजन (Entertainment) की आज की ये दुनियाँ confusing तो नहीं…


The Entertainment World

आज दुनियाँ 21वीं सदी के दौर को जी रही है और इस सदी में चारों ओर बाजारीकरण की ऐसी बयार चल रही है, जिसमें मानवीय जीवन की सारी संवेदनाओं को भुनाने की पुरजोर कोशिश की जा रही है और इसी में से एक है, “मनोरंजन की दुनियाँ” (The Entertainment World), जहां छह महीने के बच्चे से लेकर सौ साल तक की आयु वाले के लिए भी कुछ न कुछ है| कहने को तो मनुष्य को खुशी देने के उद्देश्य को ध्यान में रखकर रची गयी है ये दुनियाँ, लेकिन क्या हमें ये वो खुशी दे पाने में सफल है, जिसका आज के मानवीय जीवन को सरोकार है? आज जब हम अपने चारो ओर मनोरंजन को जेहन में रखकर अपनी आखें घुमाते हैं तो options की हमें इतनी लंबी-चौड़ी फेहरिस्त दिखाई पड़ती है, जिसमें से हम क्या चुनें, ये समझ ही नहीं आता? इसका जीता जागता उदाहरण है, टीवी, जिसके शुरुआती दौर में मनोरंजन के नाम पर केवल दूरदर्शन आता था, जिसमें विकल्प भले कम थे, पर उस जमाने में दिखाए जाने वाले विज्ञापन भी दर्शकों का भरपूर मनोरंजन करा पाने में सफल हो जाते थे| लेकिन आज के इस दौर में टीवी ऑन करते ही, चैनलों की इतनी सारी लिस्ट सामने आती है कि समझ ही नहीं आता, कौन सा मनोरंजक चैनल मन को खुशी देने वाला है और किसपर हम अपनी आखें टिकाएँ? हमारे confusion में अभी और किस बात की कमी थी कि Internet की भी दुनियाँ इससे आकार जुड़ गयी, जिसके जरिये मनोरंजन विकल्पों का अथाह भंडार दर्शकों के सामने उपलब्ध हो गया| अब तो बिलकुल ही समझ नहीं आता कि जिंदगी की भाग-दौड़ से बचे अपने चंद लम्हों को हम कहाँ खर्चें, जो हमारे मन को सुकून और जेहन को खुशी दे| जिस मनोरंजन की दुनियाँ से हम खुशियों की चाह में जुडने की कोशिश करते हैं, वो भी हमें कहीं न कहीं असंतुष्टि (Dis-satisfaction) का ही गुण सीखा रही हैं| मसलन ये चैनल नहीं पसंद आ रहा है, तो हम उसे बदलकर दूसरा लगाते हैं, ऐसा करते-करते हम कहीं संतुष्टि (Satisfaction) नहीं पाते और झल्लाकर स्विच-ऑफ कर उठ जाते हैं|

आज हमारे समाज की ये मनोदशा शायद बाजारीकरण(Commercialization) के दौर के चलते कहीं न कहीं असमंजस से भरी (Full of Confusion) एक जटिल सोच (Complex Thought) का शिकार है, जो हमें ये सिखाती है कि जीवन में मनुष्य ने यदि प्रारम्भ से ही संतुष्टि को शामिल कर लिया होता, तो शायद खुशियों के मायने भी कुछ और होते|

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