Hindi Writing Blog: 2021

सोमवार, 20 दिसंबर 2021

लोकतन्त्र की ओर बढ़ाया दुनिया ने एक और कदम

A step towards Democracy

दोस्तों, ये समग्र धरती जिसकी भूमि को बहुत सारे देश न केवल मिलकर साझा करते हैं बल्कि एक दूसरे से बहुत कुछ सीखकर आने वाले भविष्य के लिए फलदायी नीतियों का निर्माण कर पाने में खुद को सक्षम भी बनाते हैं ताकि वो अपनी राष्ट्र सीमा में रह रहे लोगों के जीवन को सही आकार दे सकें।

दोस्तों, जैसा कि हम सब जानते हैं कि यदि शासन और सत्ता की बात की जाए तो प्राचीनकाल से ही इसका स्वरूप समय, काल और परिस्थिति के अनुसार ही तय होता रहा है, कभी राजतंत्रात्मक तो कभी तानाशाही। लेकिन इस तरह के शासन से मिले परिणामों ने दुनिया को हमेशा यही सीख दी कि शासन और सत्ता से यदि सर्वसाधारण यानि आमजन की भागीदारी दूर रहेगी तो समाज में अधिकारों की सुरक्षा और असमानता की भावना चरम पर होगी। ऐसे में दुनिया ने शासन के जिस स्वरूप को बढ़ते समय के साथ मंजूरी दी वो है लोकतन्त्र, जिसमें जनता का शासन, जनता के लिए और जनता के द्वारा होता है - अब्राहम लिंकन; और दुनिया ने अभी तक इस शासन व्यववस्था से जो नतीजे देखे हैं उसमें सर्वसाधारण की खुशहाली और तरक्की ज़्यादातर दिखाई देती है, पर ऐसा नहीं है कि इसकी कुछ शर्तें न हों- लोकतन्त्र की भी अपनी कुछ शर्तें हैं; जैसा कि 26वें अमेरिकी राष्ट्रपति थियोडोर रूज़वेल्ट ने कहा था कि महान लोकतन्त्र को प्रगतिशील होना चाहिए अन्यथा जल्द ही ये महान नहीं रह जाएगा।

दोस्तों, किसी भी लोकतन्त्र का प्रगतिशील होना उसे लंबे समय तक उसके मूल्यों से जोड़े रखता है और शायद यही वजह है कि प्राचीन भारत की जनपदीय गणतंत्रात्मक व्यवस्था और योरोप के कुछ हिस्सों से चलकर आई लोकतंत्रात्मक व्यवस्था दुनियाभर के देशों को आकर्षित करती आई है और शायद यही एक बड़ा कारण भी है कि दुनिया के बड़े-बड़े देश जैसे अमेरिका, ब्राज़ील, भारत, ब्रिटेन, आदि ने लोकतंत्र को ही तरजीह दी है और वर्तमान में अब इस कड़ी में एक और नया नाम आ जुड़ा है, लगभग 400 वर्षों तक ब्रिटिश उपनिवेश का हिस्सा रहे बारबोडस का, जो पहली बार सन् 1625 में ब्रिटिश उपनिवेश का हिस्सा बना और जिसके राष्ट्रप्रमुख पद पर अभी तक ब्रिटिश महारानी एलिजाबेथ-II आसीन थीं। लेकिन दक्षिण-पूर्वी कैरिबियन सागर में स्थित इस छोटे से द्वीप जिसकी पड़ोसी सीमाएं उत्तर में सेंट लूसिया, पश्चिम में सेंट विनसेट और ग्रेनेडाइन्स तथा दक्षिण में त्रिनिदाद एवं टोबैको से जुड़ी है और जिसने खुद को 72 वर्षीय राष्ट्रपति डेम सांड्रा प्रुनेला मेसन के अगुवाई में खुद को दुनिया का नया नवेला लोकतन्त्र घोषित कर लिया। मशहूर पॉप सिंगर रियाना को अपना नेशनल हीरो स्वीकारने वाले इस देश ने खुद को प्रिंस चार्ल्स के सामने ही गुलामी की बेड़ियों को तोड़कर बाहर आने और शासन व्यवस्था के लोकतंत्रात्मक स्वरूप को स्वीकारने का संदेश बारबोडस की जमीन से दुनिया को दिया।

बारबोडस द्वारा लोकतंत्र का ये जश्न हमें हमेशा सन् 1947 में मिली आजादी और बाबा भीमराव अंबेडकर जी द्वारा 1950 में दिये गए संवैधानिक उपहार लोकतंत्र के उन मूल्यों की याद दिलाता है जहां बहुजन सुखाय और बहुजन हिताय की बात सत्य सिद्ध होती है, इसलिए मित्रों हम सभी को लोकतंत्र की गरिमा को अनवरत स्वीकारते हुए अपने मतदान के अधिकार का सही और उचित इस्तेमाल सदैव करते रहना चाहिए क्योंकि यही वो अधिकार है जिससे हमें अपने देश का भविष्य चुनने की ताकत मिलती है। लोकतंत्रात्मक शासन व्यवस्था सम्पूर्ण दुनिया में निरंतरता के साथ आगे बढ़ती रहे इसी आकांक्षा के साथ आज के लिए बस इतना ही, अगले अंक में फिर मिलेंगे।

तब तक के लिए जय हिन्द, जय भारत। 

 

गुरुवार, 4 नवंबर 2021

दीपावली की हार्दिक शुभकामनाएँ

 

Happy Deepawali


कार्तिक मास की स्वर्णिम बेला

पुनः द्वार पर आयी है,

दीपावली पर प्रभु राम सिया

की अयोध्या वापसी

संग सीख बहुत कुछ लायी है ।

कहने को हो जब घनघोर अंधेरा

जीवन में,

तब अविचल होकर कंटक

भरे पथों पर कैसे चले वो

सहजता से ।

प्रभु राम का दिया यहीं प्रण

अब हम सबको दोहराना है,

पुनः द्वार पर आई इस दीपावली को

जगमगाती दीयों की रोशनी,

घर-द्वार पर सजी वंदन-वार की

हिलती-डुलती लहरियों,  

खिड़कियों के पीछे से झाकती

झालरों की टिमटिमाहट,

अधरों पर बिखरी मुस्कान से

जीवन से ही नहीं

इस समग्र संसार से,

तमस के हर एक प्रकार को

दूर भगाना है ।

बस जीवन में अब यही

प्रभु राम का दिया प्रण

दोहराना है...

    स्वरचित रश्मि श्रीवास्तव “कैलाश कीर्ति”

   


शुक्रवार, 15 अक्तूबर 2021

विजयादशमी की हार्दिक शुभकामनाएँ

 

Happy Dussehra


आदि से अनंत तक यह धरा बुराई से अच्छाई के जीत की साक्षी सदा सर्वदा बनी रहे। इस मंगलकामना के साथ विजयादशमी के पावन पर्व की आप सभी को हार्दिक शुभकामनाएँ...

                                                                    रश्मि श्रीवास्तव (कैलाश कीर्ति)


गुरुवार, 30 सितंबर 2021

आलोचनाएँ भी कैसे संवार सकती हैं आपका जीवन

Critcism

इस जग में निंदा के हैं, रूप कई,

कहीं खोट वश, कहीं चोट वश,

कहीं प्रेम वश, कहीं द्वेष वश,

रूप गिनाती अलग-अलग पर,

अर्थ बताएं एक समान,

एक तरफ परिभाषित हैं तो,

दूजी ओर अपरिभाषित,

निर्भर करते कैसे लेंगे लोग इसे,

मंन अधीर कर या फिर हो संयमित,

इस जग में निंदा के हैं रूप कई....

दोस्तों, आज हम 21वीं सदी के ऐसे दौर में जी रहे हैं जहां से आगे का रास्ता तकनीकों के माध्यम से लाई गई आधुनिकता द्वारा सफलता की बुलंदी की ओर इस प्रकार बढ़ रहा है जहां पहुँचने से पहले हम में से अधिकतर लोग अपने जीवन में किसी भी तरह की आलोचनाओं को दर किनार करते दिखलाई दे जाते हैं, लेकिन अतीत के बीते साक्ष्य और वर्तमान को आगे लेकर बढ़ता भविष्य आलोचनाओं की महत्ता को उसी प्रकार घोषित करता है जैसे कि हमारी अधीरता प्रशंसा को सुनने की ओर हमें हर पल अग्रसर दिखाई देती है। ऐसे में, इस प्रश्न का उठना अवश्यसंभावी हो जाता है कि क्या हमारे जीवन में लक्ष्य तक पहुँचने की क्षमता केवल प्रशंसा की पास ही सीमित है? तो इसका सीधा सा उत्तर है कि बिल्कुल नहीं। आमतौर पर साक्ष्यों पर आधारित तथ्य तो इसी ओर इशारा करते हैं कि प्रशंसा के विपरीत की गई आलोचनाओं ने भी इस धरा को अभूतपूर्व और अनमोल रत्न प्रदान किए हैं जिनके पदचिह्नों पर चलकर आज ये समग्र विश्व मानवता का एक लंबा सफर तय कर पाने में सफल हो पाया है।

दोस्तों, ये ही धरती है जहां भगवान बुद्ध, भगवान राम और भगवान कृष्ण को भी आलोचनाओं का सामना करना पड़ा, लेकिन क्या उन्होने इन आलोचनाओं से सहम कर या क्रोध या नफरत वश कोई विनाशकारी फैसले लिए? नहीं न? बल्कि उन्होने हम सभी को जीवन जी लेने की वो सीख दी जिसपर चलकर हम इन आलोचनाओं को अपना शस्त्र बनाएँ और सफलता के नए आयाम रच सकें। हमने ये अक्सर देखा और परखा है कि हमें अपनी रोज़मर्रा जीवनचर्या में कहीं न कहीं लगभग प्रतिदिन आलोचनाओं का सामना करना ही पड़ता है, फिर चाहे हम छात्र जीवन जी रहे हों या उससे एक कदम आगे बढ़ जिंदगी के नए प्रांगण में कदम रख चुके हों, हमारा सामना प्रशंसाओं के साथ आलोचनाओं से भी होता ही है और ऐसी परिस्थिति में हम करते क्या हैं – हम प्रशंसा को तो गले लगा लेते हैं लेकिन आलोचना सुनते ही हमारे शरीर की नकारात्मक ऊर्जा न केवल सक्रिय हो जाती है बल्कि हमारे चारो ओर एक ऐसा घेरा बना देती है जिसमें हम मेहनत से हासिल की गई अपनी सारी सफलता को एक पल में त्यागने के लिए खुद को मना लेते हैं। लेकिन क्या ऐसा करना सही है? यदि इस सवाल का जवाब आप अपने आप से पूछेंगे तो इसका आपका उत्तर भी वहीं मिलेगा जहां से ये सवाल आया है, क्या आपने प्रशंसा सुनते वक्त भी यही किया था? अगर नहीं, तो फिर आप आलोचना के लिए ऐसा दोहरा रवैया क्यों अपना रहे हैं?

दोस्तों, मेरा मानना है कि जिस प्रकार प्रशंसा हमें नित नए लक्ष्य की ओर बढ़ने के लिए प्रेरित करती है उसी प्रकार आलोचना हमें अंदर पनप रहे अवगुणों को समझने और उन्हें दूर कर प्रशंसा का पात्र बनाने का रास्ता भी दिखलाती है। फिर ऐसे में आलोचना से मिलने वाली हमारी ये प्रतिक्रिया ऐसी क्यों है? क्यों नहीं हम आलोचना को अपनी तरक्की के काम आने वाली वो सीढ़ी बना लेते जिससे हमें खुद में सुधार लाकर आगे बढ़ने की प्रेरणा अनवरत मिलती रहे।

दोस्तों, तभी तो महान संत कबीरदास जी ने भी आलोचना की महत्ता को स्वीकारते हुए समाज को ये संदेश दिया:

                      “निंदक नियरे राखिए, आँगन कुटी छवाय।

         बिना पानी साबुन बिना, निर्मल करे सुभाए॥

जी हाँ दोस्तों, ये निंदक ही हैं जो आपकी निंदा (आलोचना) कर आपको आपकी कमियों से रूबरू कराते हैं और हमारे अंदर की ये कमियाँ ही तो हैं जो बिना आलोचना के कालिदास को महाज्ञानी कालिदास कहलाने और तुलसीदास को महापंडित तुलसीदास कहलाने से रोकती रही हैं। इसलिए कभी भी घर, दफ्तर या किसी भी सार्वजनिक स्थान पर किसी के द्वारा आपकी आलोचना की जाए तो आप फिर समझ लीजिये कि ये वो संकेत है जो आप में सकारात्मक ऊर्जा जागृत करने के लिए आपको प्रेरित कर रहा है। आलोचनाओं को लेकर एक चेतावनी ये भी है कि नकारात्मकता के साथ ग्रहण की जाने वाली आलोचना आपकी स्थिति भी अँग्रेजी भाषा के महान कवि “जॉन कीट्स” और शैली” की भांति बना सकती है, जिन्होने अपनी रचनाओं के लिए मिलने वाली झूठी आलोचनाओं के चलते जीवन को ही दांव पर लगा दिया।

दोस्तों, आज अपने इस लेख के लिए आलोचना जैसे संवेदनशील विषय चुनने का मेरा अभिप्राय बस इतना है कि जब भी आप अपने जीवन में आलोचनाओं को सुनें तो उसपर अपना ध्यान केन्द्रित करने की बजाय अनवरत अपने लक्ष्य की ओर बढ़ते रहें क्योंकि आप सभी ने एक बात तो सुनी ही होगी कि जब वृक्ष फलों से लद जाता है तभी उसपर पत्थर फेंके जाते हैं, तो फिर क्या बस इतना समझ लीजिये कि आप में जरूर कुछ अच्छाइयाँ हैं जो आपको आलोचना सुननी पड़ती है। सीधे शब्दों में अगर कहूँ तो आलोचना का महत्व आपके जीवन को सफल बनाने के लिए उसी भांति है जिस भांति प्रशंसा का क्योंकि आलोचना और प्रशंसा दोनों जीवन में आगे कैसे बढ़ें इसी विकल्प को तैयार करने का मार्ग दिखलाती हैं।

बस इन्हीं शब्दों के साथ आज के लिए इतना ही, अगले अंक में किसी रोचक विषय के साथ फिर मिलूँगी तब तक के लिए...

जय हिन्द, जय भारत। 


 

रविवार, 15 अगस्त 2021

स्वतंत्रता दिवस विशेषांक: इतिहास के पन्नों में दर्ज माँ भारती के अनमोल रत्न खुदी राम बोस की जीवन गाथा

 

स्वतंत्रता दिवस

 दोस्तों, आज देश 75वें स्वतंत्रता दिवस का जश्न मना रहा है ऐसे अवसर पर जश्न-ए-आजादी के इस पावन दिन देश को आजादी दिलाने वाले उन सभी शहीदों के चरणों में मेरा सादर नमन सहृदय समर्पित है आज के इस दिन को मैं उन्हीं शहीदों में से एक खुदीराम बोस की जीवन गाथा द्वारा समस्त भारतीयों के जेहन में एक बार फिर दोहराना चाहूंगी ताकि 1947 में मिली आजादी की उस कीमत को हम सदैव याद रखें।  

दोस्तों, खुदीराम बोस भारतीय स्वाधीनता संग्राम के एक ऐसे सिपाही जिन्होने अपनी नन्ही सी उम्र में देश की आजादी के लिए अपना बलिदान दे डाला। कहा जाता है महज 19 वर्ष की उम्र में देश के लिए बलिदान देने वाले वे प्रथम युवा क्रन्तिकारी थे (हालाँकि इस तथ्य में इतिहासकारों में मतभेद है,  कुछ इतिहासकार इससे पूर्व 16 जनवरी 1862 ईस्वी में घटित 68 युवाओं के नरसंहार में एक 13 वर्षीय बालक के बलिदान को प्रथम शहीद होने का दर्जा देते हैं,  कहते है कि इस देशभक्त के जज्बे में गहराई तक डूबे बालक का 50वां नंबर था  जब उसे मारने के लिए तत्कालीन डिप्टी कमिशनर "कावन" के समक्ष लाया गया तब उसने उनकी दाढ़ी पकड़ ली और तब तक पकड़ी जबतक उसके हाथ उसी तलवार से काट नहीं दिए गए)।

                           स्वाधीनता संग्राम के इन क्रांतिकारियों ने इस गीत को वाकई सार्थकता प्रदान कि___________

" सरफ़रोशी कि तमन्ना

अब हमारे दिल में है।

देखना है जोर कितना

बाजुए कातिल में है।।"

 

भारत माता को अंग्रेजों कि गुलामी कि बेड़ियों से मुक्त कराने वाले भारत माँ के इस सपूत का जन्म 3 दिसंबर 1889 को पश्चिम बंगाल के "मिदनापुर" जिले के "बहुवैनी" नामक गांव में "बाबू त्रैलोक्यनाथ  बोस" के यहाँ हुआ था। इनकी माता का नाम "लक्ष्मी प्रिया" था। खुदीराम ने जब होश सम्हाला तो उन्होंने अपने इर्द-गिर्द के माहौल में ब्रिटिश शासन के द्वारा भारतीय जनमानस पर ढाये जुल्मों को ही देखा लिहाजा उनके कोमल मन में ये बात घर कर गई कि अपने देश को इन जालिम अंग्रेजों के शासन से मुक्त कराना है लिहाजा उन्होंने 9वीं कक्षा कि पढ़ाई बीच में ही छोड़ दी और स्वदेशी आंदोलन में कूद पड़े।

                                स्कूल छोड़ने के बाद खुदीराम बोस" रिवोल्यूशनरी पार्टी" के सदस्य बने और वन्देमातरम पैम्पलेट वितरित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, 1905 में बंगाल के विभाजन (बंग-भंग) के विरोध में चलाये गए आंदोलन में उन्होंने भी बढ़-चढ़कर भाग लिया।

इसके बाद 1906 में मिदनापुर कि औद्योगिक और कृषि प्रदर्शनी में क्रन्तिकारी "सत्येंद्र नाथ" द्वारा लिखे "सोनार बांग्ला" कि प्रतियां बांटी।

पुलिस कि नजर इन पर पड़ी और वो बाकी पत्रक लेकर भाग गए परन्तु देशद्रोह के आरोप में सरकार ने उनपर राजद्रोह का मुक़दमा चलाया और सरकार द्वारा गवाही न मिलने पर निर्दोष छूट गए और 2 महीने बाद पुनः 16 मई 1906  को पकड़े गए लेकिन फिर रिहा कर दिए गए। 6 दिसम्बर 1907 में बंगाल गवर्नर की ट्रेन पर हमला कर दिया यही नहीं क्रांति के पुजारी बोस ने 1908 में दो अंग्रेज अधिकारियों "वाटसन" और "पैम्फॉल्ट फुलर" पर बम से हमला किया लेकिन वे बच गए।

                              खुदीराम बोस ने देश कि आजादी को और जोर देने के लिए मिदनापुर के "युगान्तर" नाम कि संस्था के माध्यम से पहले ही स्वयं को क्रांतिकारियों से जोड़ दिया था। उसके बाद 1905 में बंग-भंग आंदोलन (लार्ड गर्जन) के विरोध में सड़कों पर उतरे। उस समय भारत के अनेकों विरोधकर्ताओं को कोलकाता में मजिस्ट्रेट "किंग्जफोर्ड" ने क्रूर दंड दिया। इसी वजह से ब्रिटिश शासन ने उसकी पद्दोनति कर उन्हें मुज्जफ्फरपुर का सत्र न्यायधीश बना दिया। युगांतर समीति कि गुप्त बैठक में किंग्जफोर्ड (जिसने बंग-भंग आंदोलन के विरोदियों को क्रूरता से दंड दिया था) को मारने का निश्चय किया। इस महत्वपूर्ण कार्य हेतु खुदीराम तथा "प्रफुल्ल चाकी" का चयन किया गया,  उन्होंने "किंग्जफोर्ड" कि गाड़ी पर बम फेंका जिसमे दो यूरोपीय स्त्रियों ने अपने प्राण गवायें परन्तु किंग्जफोर्ड बच गया।

            अंग्रेजी पुलिस प्रफुल्ल चाकी व खुदीराम बोस के पीछे पड़ गयी, गिरफ़्तारी से बचने के लिए प्रफुल्ल चाकी ने ब्रिटिश सिपाही कि गोली से मरने कि बजाय स्वयं को गोली द्वारा मारना पसंद किया और  इसी भावना के चलते प्रफुल्ल चाकी ने खुद को गोली मार ली और देश पर अपने प्राण न्योछावर कर दिए, चूँकि भागते समय दोनों ने अपने-अपने रास्ते अलग कर लिए थे और जिसके चलते अलग हुए खुदीराम को पुलिस ने पकड़ लिया और 11 अगस्त 1908 को 18+ कि उम्र में उन्हें फांसी दे दी गयी।

           इस प्रकार भारत माँ का ये वीर सपूत नन्ही से उम्र में इस दुनिया से विदा हो गया। परन्तु उनकी मौत ने उन्हें बंगाल में इतना लोकप्रिय बना दिया कि बंगाल के जुलाहे एक खास किस्म की धोती बुनने लगे जिसके किनारों पर खुदीराम बोस लिखा होता था  और ये धोती भारतीय युवाओं में काफी प्रचलित हो गई।

                   दोस्तों आजादी के महासंग्राम में अपनी अमर आहुति देकर खुदीराम बोस जैसे युवाक्रांतिकारी ने इस देश को आज ये दिन दिखलाए हैं कि हम सभी आज आजाद भारत की तरक्की और खुशहाली का एक सजा सजाया मंच देख पा रहे हैं यहाँ से अभी इस राष्ट्र को एक लंबा सफर तय करना है जिसमें देश की एकता के साथ समग्र भाईचारे की भावना का संयोग अनिवार्य है क्योंकि तभी बनेगा हमारे सपनों का वो नया भारत जो अतीत से लेकर आने वाले भविष्य तक सम्पूर्ण विश्व को मार्ग दिखलाएगा।

 आज के लिए इतना ही अगले अंक में आप से फिर मुलाक़ात होगी। जाते-जाते एक बार फिर  आप सभी को स्वतन्त्रता दिवस की हार्दिक शुभ कामनाएँ!!!

 


रविवार, 1 अगस्त 2021

फ्रेंड्शिप डे

 

Friendship Day

“दोस्ती” - कहने को बड़ा आसान सा शब्द है ये दोस्ती

पर क्या पता है दोस्तों, हर रिश्ते की जान है ये दोस्ती

माँ के प्यार दुलार में छुपी, आँख-मिचौली है ये दोस्ती

पिता की सीख और नसीहत के पीछे भी है ये दोस्ती

भाई-बहन के लड़ाई-झगड़े के बीच भी है ये दोस्ती

पति-पत्नी की नोक-झोंक में भी है ये दोस्ती

और कहीं रिश्तों से परे बन जाये बस एक प्यारा सा बंधन

तो उस रिश्ते की नींव भी है ये दोस्ती

तभी तो इन इंद्रधनुषी रंगों का प्यारा सा पैगाम है ये दोस्ती

कुछ कही-अनकही बातों के पालनों में झूला जाती है ये दोस्ती

तो होंठो की मुस्कान और आसुओं के दर्द का हिसाब भी दे जाती है ये दोस्ती

तभी तो दोस्तों, दुनिया में सबसे अनमोल है ये दोस्ती...

                         स्वरचित रश्मि श्रीवास्तव “कैलाशकीर्ति”


इन्हीं शब्दों के साथ आप सभी को मित्रता-दिवस (फ्रेंडशिप-डे) की हार्दिक शुभकामनाएँ


शुक्रवार, 23 जुलाई 2021

अंतरिक्ष के बढ़ते कदमों के बीच प्राचीन और आधुनिक भारत का कदमताल

 

Space Home

दोस्तों, हम सब हमेशा से ये सुनते और देखते आए हैं कि मानव सभ्यता नित नए अन्वेषणों (खोजों) को अंजाम देती रही है, जिसका नतीजा यह निकला कि 21वीं सदी के आते-आते विज्ञान से मिले ज्ञान की बदौलत आज पूरी दुनिया मुट्ठी में आकर सिमट गई। फिर, चाहे वो इंटरनेट के जरिये दुनिया के नक्शे पर उभरे सभी देशों को ग्लोबलाइज़ेशन द्वारा एक करना हो या नई-नई तकनीकों के माध्यम से सूचना संचार और चिकित्सा जगत में क्रान्ति का लाना हो। पिछले कुछ दशकों से इन सभी क्षेत्रों में अभूतपूर्व परिवर्तन देखने को मिल रहे हैं। इस परिवर्तन का परिणाम यह है कि आज की आधुनिक दुनिया हमारी धरती और इससे जुड़े सौरमंडल को सुलझाने की ओर काफी तीव्र गति से अग्रसर हो चली है। दुनियाभर से जिस प्रकार मंगल ग्रह पर कालोनियाँ बसाये जाने की इच्छा बलवती दिखाई देती है उसी प्रकार अब विशेष अंतरिक्ष चालकों और उनके करीबी दलों के अलावा आम(पर खास लोगों) की अंतरिक्ष यात्रा भी मानव जाति के बढ़ती महत्वाकांक्षाओं पर मुहर लगा रही है।

दोस्तों, आज से लगभग 21 वर्ष पूर्व सन् 2000 में दुनिया के सबसे अमीर अरबपति jeff Bezos ने Blue Origin नाम की एक कंपनी स्थापित की थी जिसका लक्ष्य एक दिन कृत्रिम गुरुत्वाकर्षण के साथ तैरती हुई अन्तरिक्ष कालोनियों का निर्माण करना था, जहां लाखों लोग काम करेंगे और रहेंगे। उनके इस सपने को पूरे करने वाली यात्रा 20 जुलाई सन् 2021 को सकुशल सम्पन्न भी हो चुकी है। हालांकि 12 अप्रैल सन् 1961 को Vostak-1 में बैठकर किसी इंसान द्वारा अन्तरिक्ष की ओर की गई यात्रा में पहला नाम Yuri Gagarin का आता है परंतु ये यात्राएं जनसाधारण से परे थीं। उसके बाद तो मानवयुक्त अन्तरिक्ष यात्राएं अनेकों देशों द्वारा कराई गईं लेकिन वो सभी किसी न किसी राष्ट्रीय हित से जुड़े मिशन का हिस्सा रही हैं। भविष्य धीरे-धीरे बदलता चला गया और अब बारी आई है दुनिया के उन अरबपतियों की जो धरती के अलावा अंतरिक्ष को अपना दूसरा घर बनाए रखने का सपना देखते हैं। इस क्रम में Blue Origin के संस्थापक Jeff Bezos थोड़े पिछड़ गए और प्रथम अंतरिक्ष यात्री होने का गौरव हासिल किया Virgin Galactic के संस्थापक और मशहूर बिजनेसमैन Richard Branson ने, जिन्होने हाल ही में अपनी अंतरिक्ष यात्रा पूरी करते हुए लिखा “स्पेस युग की नई सुबह में आपका स्वागत है” अगर दुनिया इस दौड़ में इतनी आगे है तो अपना देश कैसे पीछे रह सकता है। आज ही Elon Musk द्वारा भारत के मानव युक्त अंतरिक्ष यात्रा से जुड़े मिशन “गगनयान” के विकास इंजन के सफल परीक्षण पर ISRO को बधाई देता एक संदेश मिला “बधाई भारत”।

जी हाँ दोस्तों, आगामी वर्ष 2022 तक भारत भी अपने इस मिशन द्वारा मनुष्यों को अंतरिक्ष में भेज सकेगा। भारत की बढ़ती उपलब्धियां चन्द्र, सूर्य, शुक्र, मंगल और बृहस्पत की कक्षाओं तक वर्ष 1957 द्वारा शुरू की गई आर्यभट्टीय उपग्रह शृंखला के नित नए बढ़ते कदमों का परिणाम हैं। आज दुनिया अंतरिक्ष में अपने कदम जिस तेजी से बढ़ा रही है वो दिन दूर नहीं जब धरती के लोगों को अन्य ग्रहों पर भी जाकर रहने का अवसर मिल जाए, लेकिन इन सब के पीछे भी एक रहस्य है जो प्राचीन भारत की गौरवपूर्ण अस्मिता से न केवल सम्बद्ध है परंतु हमारे देश के वैज्ञानिकों को आज भी हौसला देने में सक्षम है। अंतरिक्ष की जिस परिकल्पना पर आज दुनिया चल रही है उसकी संबद्धता कहीं न कहीं भारत के प्राचीन इतिहास से जुड़ी है जहां आज से लगभग 4 हजार वर्ष पूर्व लिखे गए ऋग्वेद में हमें खगोल विज्ञान के सम्पूर्ण दर्शन प्राप्त होते हैं साथ ही भारत की प्राचीनता से हमें कई ऐसे खगोलविद्वों के ज्ञान मिलते हैं जो आज भी सौरमंडल और इससे जुड़ी सभी खोजों को मार्ग दिखा रहे हैं। महज 23 वर्ष की आयु में 499 CE में महान भारतीय खगोलविद आर्यभट्ट ने अपनी पुस्तक आर्यभटीय में न केवल ये बताया कि पृथ्वी अपनी जगह पर घूमती है साथ ही सूर्य चंद्रमा और उनसे जुड़े ग्रहण की भी परिकल्पना से दुनिया का परिचय कराया। भारतीय मनीषियों और खगोलविदों के ज्ञान से आगे बढ़ती मानवीय सभ्यता आज भी उतनी ही सशक्त है जितनी प्रचीनकाल में थी क्योंकि भारत को जहां पाँचवीं शताब्दी में ही ये पता चल चुका था कि पृथ्वी अचल नहीं है वहीं दूसरी ओर सन् 1473 से 1593 के बीच यूरोप में कॉपरनिकस के आने से पूर्व टालमी और बाइबिल के सिद्धांत ही प्रचलन में थे।

खगोल शास्त्र से जुड़े ज्ञान की समृद्धता भारतीय इतिहास में उज्जैन के शासक चंद्रगुप्त विक्रमादित्य से लेकर आधुनिक युग के शासक सवाई राजा जयसिंह तक देखी जा सकती है, जिसके फलस्वरूप भारत की गरिमामयी उपलब्धियां सदियों के बदलने पर भी कभी नहीं रुकीं। तभी तो टीपू सुल्तान द्वारा मैसूर युद्ध के समय अंग्रेजों के विरुद्ध किया गया रॉकेट का प्रयोग अंग्रेज़ अधिकारी विलियम कंग्रीव को भी सोचने पर मजबूर कर गया था।

दोस्तों, इन घटनाक्रमों का उल्लेख भारत की महानता से आप सभी को रूबरू कराना है जो हमेशा अमिट और अविरल रही है। भारत से जुड़ी इन उपलब्धियों की गाथा यूं ही अनवरत चलती रहे और समय के साथ इसमें नए ऐतिहासिक घटनाक्रम जुड़ते जाएँ।

बस इसी आकांक्षा के साथ आज के लिए इतना ही....भारत की असीम गाथाओं से अगला पन्ना अवश्य आपके लिए दोबारा लेकर आऊँगी...तब तक के लिए...

                                 जय हिन्द...जय भारत...


सोमवार, 5 जुलाई 2021

समय पर हो पैनी नज़र

 

Time is Important













दोस्तों, समय पर हमेशा पैनी नज़र रखना जरूरी होता है क्योंकि:

मंज़िलें यूँ ही नहीं मिला करतीं

ख्वाबों को सजाने से,

जमीं पर लाने में भी

उन्हें कुछ वक्त लगता है ।

मंज़िलें यूँ ही नहीं मिला करतीं...

जिंदगी टूट जाती है,

हौसले रूठ जाते हैं,

कमबख़्त कश्तियां जब दरिया में

डूब जाती है,

तब दरिया किनारे लाने में भी

उन्हें कुछ वक्त लगता है ।

मंज़िलें यूँ ही नहीं मिला करतीं...

सिमट जाती हैं कुछ राहें

तूफानों के थपेड़े से,

कमबख़्त तूफानों के थमने में भी

तो कुछ वक्त लगता है ।

मंज़िलें यूँ ही नहीं मिला करतीं...

                      स्वरचित रश्मि श्रीवास्तव “कैलाश कीर्ति”


मंगलवार, 22 जून 2021

विश्व योग दिवस विशेषांक - आ अब लौट चलें…

 

Yog and Ayurveda













दोस्तों, आज के लेख का शीर्षक “आ अब लौट चलें” सन् 1999 में सिनेमा के रुपहले पर्दे पर आयी उस फिल्म को लेकर मैंने रखा है जिसमें पर्दे पर फिल्माए गए किरदारों (राजेश खन्ना, अक्षय खन्ना, ऐश्वर्या राय) को अपने देश से जुड़ी माटी की सोंधी खुशबू तब याद आती है जब वो विदेशी धरती पर अपने देश की गरिमामयी संस्कृति का ख्याल अपने जेहन में लेकर आते हैं। चूंकि रुपहले पर्दे पर फिल्मायी गईं ये कहानियाँ हमें हमारे जीवन में बहुत कुछ सीखने की सीख दे जाती हैं, इसलिए अब हमें भी अपने जीवन की धारा को ठीक इस कहानी की भांति प्राचीन भारतीय सभ्यता और संस्कृति की उन गहरी जड़ों की ओर वापस ले जाना होगा जो आज की इस भौतिकता में कहीं खो सी गयी है।

जी हाँ दोस्तों, एक लंबे अर्से से जिम्मेदारियों के निर्वहन और भौतिक सुखों को पाने की चाह ने हमसे हमारी उन परम्पराओं को दूर कर दिया है जिसमें हमारी कामना, शारीरिक रूप से स्वस्थ रहकर मानसिक स्वस्थ को पाने की थी और ये बात वैश्विक महामारी से उपजे हालातों के इस दौर में और भी अनिवार्य हो जाती हैं कि हमें अब खुद को लौटने का संकेत दे देना चाहिए क्योंकि पिछले कुछ समय से प्रकृति के बेतहाशा दोहन ने अगर एक ओर समग्र जलवायु को परिवर्तित कर देने का माद्दा दिखाया है तो वहीं दूसरी ओर हमारी बदलती आदतों और अनियमित जीवन शैली ने हमसे हमारे शरीर की ताकत भी छीन ली है।

दोस्तों, आज दुनिया भर के वैज्ञानिक/विशेषज्ञ हमें हमारे शरीर के immune system को मजबूत बनाकर इस महामारी से निपटने के लिए प्रेरित कर रहे हैं क्योंकि Covid-19 के इस वायरस ने ये तो प्रूव कर ही दिया है कि अगर हमारा शरीर मजबूत होगा तो ही हम इस बीमारी से भलि-भांति लड़ पाएंगे और ऐसा तब होगा जब यूरोपीय पुनर्जागरण से शुरू हुए नित नए अन्वेषण/आविष्कार से परे होकर हम खुद को आधुनिकता की अंधी दौड़ से पीछे हटा लें और अपनी दैनिक दिनचर्या में भारतीय संस्कृति से मिली विरासत योग/ध्यान की परंपरा को आगे बढ़ाएँ, बेहतर खान-पान के साथ अपने अपनों को दी गई सकारात्मक ऊर्जा को मानसिक स्वास्थ्य की दृढ़ता में लगाएँ क्योंकि दोस्तों, यूनान, रोम, मिस्र और चीनी संस्कृतियों की लगभग नष्ट हो चुकी परंपरा से परे भारतीय सभ्यता और संस्कृति ही एक मात्र ऐसी धरोहर है जो आदिकाल से लेकर वर्तमान तक अपने परंपरागत अस्तित्व को जीवित रखकर अजर और अमर बनाए हुए है। फिर चाहे वैदिक काल में किए गए शस्त्र पराक्रम हो या महाकाव्य काल में धनुर्विद्या, तीरंदाजी या अन्य विधाओं का प्रदर्शन, सभी का उद्देश्य सिर्फ एक ही था, विश्व में सबसे प्राचीन मानी जाने वाली भारतीय व्यायाम प्रणाली को जीवित रखना तथा स्वस्थ शरीर के साथ स्वस्थ मन का निर्माण करना। जैसे-जैसे वक्त बीता भारत की इन विधाओं ने दुनियाभर में अपनी पैठ बनानी शुरू कर दी और इसी क्रम में यूनान, स्पार्टा, रोम में भी शारीरिक स्वास्थ्य ने लय पकड़ ली और रही बात भारत की तो कभी पूरी दुनिया में प्रसिद्ध रहे नालंदा विश्वविद्यालय के बारे में 7वीं शताब्दी में आए चीनी यात्री ह्वेन सांग ने स्वयं यह लिखा कि “उसने भारत में आकर लगभग 10 हजार विद्यार्थियों को रोज़ अपने दैनिक दिनचर्या में दंड-बैठक, मुगदर, गदा, नाल, धनुर्विद्या, मुष्टि, वज्रमुष्टि, आसन, प्राणायाम, सूर्य नमस्कार, नौलि, नौती, धौति, वर्ती, आदि अनेक क्रियाएँ करते देखा था, जो उन विद्यार्थियों को फिट बनाए रखती थीं।”

दोस्तों, हम सभी भारतीय हैं और हमारी समृद्ध परंपरा ने हमें पातंजलि के माध्यम से योगदर्शन, चरक के माध्यम से चरकसंहिता तथा सुश्रुत और वाग्भट् के माध्यम से क्रमशः सुश्रुत संहिता और अष्टांग संग्रह जैसे ग्रन्थों द्वारा चिकित्सा/व्यायाम के द्विसमन्वय से परिचित कराया। वक्त आ गया है कि हम अपने पूर्व मनीषियों से मिले ज्ञान का थोड़ा अंश अपनी जीवनशैली में भी शामिल करें ताकि हम निरोगी रहें।

दोस्तों, कोविड-19 जैसी इस भयंकर आपदा ने आज हम सभी की जीवनशैली पर कुछ सकारात्मक और कुछ नकारात्मक असर डाला है लेकिन अब बारी हमारे निर्णय की है कि हम इनमें से किसे चुनते हैं क्योंकि इस आपदा ने इतना तो सीखा ही दिया है कि “जान है तो जहान है” और इस जान की सुरक्षा तभी होगी जब हम इस दिशा में आज और अभी से प्रयास प्रारम्भ कर दें। चूंकि हमारे पास हमारे पूर्वजों द्वारा समग्र मानव जाति को अर्पित मूल्यवान ज्ञान की एक बहुमूल्य धरोहर पहले से ही मौजूद है तो हमें इसे ढूँढना नहीं है बस करना ये है कि अपनी मंशा को आ अब लौट चलें” की ओर मोड़ देना है, ये अपनी वही पुरानी जड़ें हैं जहां से भारत ने जगत गुरु बनने की यात्रा प्रारम्भ की थी।

दोस्तों आप सभी स्वस्थ रहें, सुरक्षित रहें!!! आज के लिए बस इतना ही अगले अंक में फिर मिलेंगे ...जय हिन्द, जय भारत...