गार्गी, घोषा, अपाला का, रूप हैं ये बेटियां ।
बेटियां ही मान हैं, तो अभिमान भी है बेटियां
।।
बेटियों से है धरा ,तो बोझ क्यूँ हैं बेटियां ।
काली,दुर्गा,लक्ष्मी का,
रूप हैं जब ये बेटियां ॥
तो हमारे इस समाज में, अभिशाप क्यूँ हैं
बेटियां ।
बेटियों ने जब संभाली है, सुरक्षा देश की ॥
तो हमारे इस समाज में, क्यूँ असुरक्षित है बेटियां ...
("कैलाश कीर्ति (रश्मि)"
द्वारा रचित)
21वीं सदी में प्रवेश किये भी हमे वर्षों बीत गए हैं फिर भी मेरे
जेहन में ये सवाल बार-बार आकर ठहर जाता है कि आखिर क्यों हमारे इस समाज में आज भी
बेटियां सुरक्षित नहीं हैं? आज हम जब कभी भी अपने इस
प्रगतिशीत समाज का मूल्याङ्कन करने बैठते हैं तो हमारी बेटियों के साथ हो रहे
अत्याचार इसकी गतिशीलता और संवेदनशीलता दोनों पर सवालिया निशान खड़ा कर देते हैं।
यही नहीं 29 राज्यों वाले हमारे देश के प्रत्येक हिस्से से
हमें हर रोज हमारी बच्चियों के साथ घटित होने वाली अप्रिय घटनाओं की जानकारी
मीडिया व समाचार पत्रों के माध्यम से प्राप्त होती रहती है।
तो
हम ये सोचने पर विवश हो जाते हैं की आखिर क्यूँ सृष्टि में ईश्वर द्वारा रचित इस
अनमोल कृति को मानव रचित समाज में प्रवेश करने पर इतना सहना पड़ता है? क्यूँ हम बेटियों को
इस संसार में प्रविष्टि पाने से पहले ही उनका मार्ग रोक देते हैं? और जो प्रविष्टि पा लेती हैं उनका जीवन भी किसी न किसी तरह दूभर करने में
कोई कसर नहीं छोड़ते।
क्या ऐसा नहीं हो सकता कि हम सब मिलकर इस धरा पर इन बेटियों के लिए ऐसा परिवेश निर्मित कर दें कि हर बेटी गार्गी, अपाला, घोषा, लक्ष्मीबाई, सुनीता विलियम, कल्पना चावला की परंपरा का निर्वाहक बनें न कि अपने नयनो से बहते अश्रुओं को संभालने वाली वेदना का...