वर्तमान भारतीय परिवेश में जब भी हमारे कानों में भीड़ द्वारा हत्या किये जाने की ध्वनि का संचार होता है उसी वक़्त हमारे जेहन में ये बातें तीव्र गति से चलायमान हो जाती हैं कि क्या मानवाधिकार को सुरक्षित रखने कि दुहाई देने वाला ये जनमानस मानवता से ही तो दूर नहीं हो गया| आखिर क्यूँ सिर्फ कही सुनी बातों में आकर हम एक इंसान कि हत्या का जघन्य अपराध करने पर आमदा हो जाते हैं, क्या ये लोकतंत्र है और हम आजाद है? क्या यही इन जैसे शब्दों को परिभाषित करता है?
अतीत और वर्तमान दोनों गवाह है कि जब भी कहीं मानवता शर्मसार हुई है दुनिया भर के मानवतावादी हितसंरक्षकों ने इसके खिलाफ आवाज उठाई है और भरसक कोशिश भी की है की पीड़ितों को न्याय और इन्साफ मिले और इन्ही हितवादियों को सारता प्रदान करती सोच को हम अपने जीवन के प्रत्येक पहलू में स्वयं के लिए भुनाने की कोशिश करते हैं और जब बात दूसरों की आती है तो हम स्वयं क्यूँ तैयार हो जाते हैं उस भीड़ का हिस्सा बनने के लिए जो दूसरों के मानवाधिकारों को रौंदने पर आमदा होती है, अभी हाल ही में बच्चा चोर समझ कर की गयी एक सॉफ्टवेयर इंजीनियर की हत्या हो या पशु चोर समझ कर की गयी दूसरी हत्यायें- इन सभी हत्याओं को भीड़ ने ही अंजाम दिया है|
इस देश में क़ानून व्यवस्था के रहते हुए भी आखिर भीड़ ने क्यूँ ऑन द स्पॉट फैसला सुनाते हुए इनकी जान ले ली, क्या इन्हे ये मौलिक अधिकार भी नहीं था कि वो अपनी बात रख सकते, आखिर क्यूँ हम इतना भटक गए हैं? क्या डिजिटल क्रांति को हथियार बनाकर भीड़ तंत्र द्वारा ऐसे ही मानवता कि धज्जियाँ उड़ाई जाती रहेंगी|
क्योंकि अगर इस देश में इसके खिलाफ कोई कानून बन जाये तो भी उसे अमलीकृत करने में कानून प्रतिनिधियों के साथ-साथ हम सब की भी उतनी ही जवाबदेही है जितनी सरकार की, लिहाजा अगर हम मानवाधिकारों को स्वयं के लिए मांगते हैं तो हमें दूसरों के अधिकारों का भी ख्याल रखना होगा और ईश्वर द्वारा प्रदत्त मानवता यानि इंसानियत के उपहार का भी निजी जीवन में पालन करना होगा तभी हमारा समाज, हमारा देश, हमारा विश्व समग्र और समृद्ध बन पाएंगे|
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