उदर
की वेदना अब,
चीत्कार कर रही है ।
नयनो की अश्रु धारा, विलाप कर रही है ।।
जीवन गति न रोक दे, विकास का अलाप ये ।
सचेतो अब मूर्धन्यों!
उदर की वेदना अब, चीत्कार कर रही है ।
चीत्कार कर रही है ।।
"कैलाश कीर्ति (रश्मि)" द्वारा रचित
भारत________विश्व के मानचित्र पर अंकित एक ऐसा राष्ट्र
जिसकी सशक्तता का इतिहास सदैव से साक्षी रहा है। सनातन काल से चली आ रही परम्पराओं
ने तो इसे विश्व गुरु की संज्ञा से भी अलंकृत कर रखा है परन्तु इन सब के बावजूद
क्या भारत का वर्तमान सही में ऐसा बन पा रहा है जो पुरानी परम्पराओं का निर्वहन
करने में समर्थ हो? ये प्रश्न शायद आज भी अनुत्तरित है
क्योंकि जिस भारत के विकसित होने का हम दम भर रहे हैं वो भारत ये भारत नहीं है
जहाँ आज भी इसके नागरिकों को अपने जीवन की मूलभूत आवश्यकताओं (रोटी, कपडा और मकान) में से एक रोटी की समस्या से जूझना पड़ रहा है।
हाल ही में आयी ग्लोबल हंगर की रिपोर्ट ने इस बात की प्रमाणिकता पर
अपनी मुहर भी लगा दी और इस तथ्य को पूर्णतया सत्य भी कर दिया कि कभी विश्व गुरु का
दर्जा पाने वाले भारत के वर्तमान में दो रूप हैं, एक तरफ का भारत
गगनचुम्बी इमारतों, चकाचौंध से भरी दुनिया का भारत है तो
वहीँ दूसरी तरफ का भारत इससे बिलकुल अलग गरीबी, भुखमरी और
बेकारी का भारत है।
असंतुलन का ऐसा भद्दा स्वरूप है ये जिसके आधार पर भारत के विश्व
पटल पर पुनः विश्व गुरु कहलाये जाने के प्रश्न पर ही एक सवालिया निशान लग जाता है।
ये कैसे समाज में हम रह रहे हैं जहाँ हम बुलेट ट्रेन और स्टैच्यू ऑफ़ यूनिटी की बात
करते हैं लेकिन वास्तविकता ये है कि देश की 2/3 आबादी को हम दो
वक़्त की रोटी तक दे पाने में सक्षम नहीं हैं।
कैसा विकास है ये? किसका विकास है ये? और किसके
लिए विकास है ये? जिसे हम हमारे देशवासियों के जीवन को जीवंत
रखने वाली दो वक़्त की रोटी के बदले छीन कर हासिल कर रहे हैं।
ऐसे में ये प्रश्न लाजिमी है कि आखिर हमारे देश को आज दरकार किसकी
है ________बुलेट ट्रेन की या फिर भूख से बिलख रहे देश वासियों के दो वक़्त के निवाले
की?
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