Hindi Writing Blog: "आखिर हम क्यूँ नहीं समझते सांप्रदायिक सौहार्द की महत्ता को"

शनिवार, 10 नवंबर 2018

"आखिर हम क्यूँ नहीं समझते सांप्रदायिक सौहार्द की महत्ता को"




न तेरा हो, न मेरा हो ।
सौहार्द का बसेरा हो ।।
शान्ति का प्रकाश हो ।
और विकास का ही डेरा हो ।। ("कैलाश कीर्ति (रश्मि)" द्वारा रचित)

आज जब कभी भी मेरे श्रवणेन्द्रियों को धर्म के आधार पर घटी दुर्घटनाओं के श्रवणपान का अवसर प्राप्त होता है, मन उद्विग्न सा हो उठता है कि क्या यही उद्देश्य है इस मानव जीवन का, जब रचयिता ने धरा पर भेजते वक़्त धर्म की कोई मर्यादा तय नहीं की तो आखिर हम यहाँ आकर समाज द्वारा स्वनिर्मित किये गए मानकों को लेकर आपस में द्वेष भाव क्यूँ रखते हैं।

                     माना की समाज के बंधे दायरे में हम जन्म लेते हैं, फिर भी क्या हममे इतनी भी इच्छाशक्ति नहीं कि हम दुराभाव से परिपूर्ण तथ्यों को एक सिरे से नकार दें, सम्पूर्ण सृष्टि ने हम सभी को जीवन रूपी अनमोल उपहार देकर अलंकृत किया है तो फिर क्या हमारा ये कर्तव्य नहीं बनता कि हम अपनी अच्छाइयों से इस सृष्टि के वातावरण में अनुकूलता का ऐसा भाव घोल दें कि वैमनस्य के अंधकार से ये धरा मुक्त हो जाए। हम सभी कुदरत की अनमोल कृति हैं लिहाजा हम सभी को धर्म की मर्यादाओं से ऊपर उठकर इस दुनिया को देखना होगा 
तभी हमारी ये मानवीय दुनिया एक ऐसी दुनिया बन पाएगी जिसकी कल्पना शायद सृष्टि के निर्माता ने इसे बनाते वक़्त सोची होगी।

                       सोच के देखिये! कितना अच्छा होता यदि समाज में चारों तरफ शांति, सौहार्द और विकास का प्रकाश व्याप्त होता तो हम सभी का जीवन एक समान आकर्षक होता, अगर हम सामाजिक कुरीतियों से परे हटकर अपने समाज की संकल्पना भर कर लें तो हमारा मन आह्लाद के झूले में बैठकर आकाश की असीम ऊंचाइयां छूने लग जाता है।
क्या रखा है इस संप्रदाय, जाति, अमीर-गरीब, ऊंच-नीच को आधार मानकर लड़ी जाने वाली लड़ाइयों में, अंत में हमें हाँसिल क्या होता है? सिर्फ और सिर्फ बरबादी। तो क्या आप को नहीं लगता इन सबसे परे हटकर हम सभी को सौहार्द की ऐसी गंगा इस समाज में प्रवाहित करनी चाहिए जिसकी बहती अविरल धारा में हम कागज़ से बनी उस नाव को भी तैरा सकें जिसमे इस संमाज का, उसमे रहने वाले सामाजिक प्राणियों का सिर्फ और सिर्फ कल्याण छुपा हो ताकि इतिहास इस बात का साक्षी बने कि हम गतिशील हैं न कि गतिहीन।

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