Hindi Writing Blog: 2018

सोमवार, 31 दिसंबर 2018

आप सभी को नव वर्ष 2019 की हार्दिक शुभकामनाएँ



नये वर्ष की दस्तक से, पुलकित मन का आँगन है
जीवन की इस मधुरिम बेला मे, आप सभी का स्वागत है |
छोड़ गया है साल पुराना, अमिट धरोहर यादों की
नये वर्ष ने पाँव पसारा, लेकर उम्मीद मुरादों की ||

                                           ("कैलाश कीर्ति (रश्मि)" द्वारा रचित)

शनिवार, 29 दिसंबर 2018

नर नारी के बीच समानता इस मानव निर्मित समाज की अनिवार्यता क्यूँ?




नर-नारी उपहार सृष्टि का
फिर विभेद ये कैसा है |
नारी ने जन्मी मानवता
तो नर भी है सृजक समाज का ||
फिर विभेद ये कैसा है...
नर मे है पुरुषत्व का बल तो
नारी मे अंतर्बल की बहती धारा |
ऐसे मे पूरक हैं दोनों
फिर विभेद ये कैसा है ||
फिर विभेद ये कैसा है...
                ("कैलाश कीर्ति (रश्मि)" द्वारा रचित)

                                     

कल जब पूरे देश की सुर्खियों मे छाये तीन तलाक विधेयक को लोक सभा मे पारित किया गया तो देश की इस व्यवस्थापिका के प्रति सम्मान प्रदर्शित करने हेतु नमन के लिए शीश अपने आप झुक गया क्योंकि ये भारतीय नारियों के इतिहास का वो स्वर्णिम दौर है जब महिलाओं की समानता को वैधानिक रूप से पुरजोर बल मिला है और ये बल आज के इस दौर मे इसलिए भी मायने रखता है क्यूंकि इसमे धर्म और समाज की बेड़ियों को तोड़ते हुए मात्र और मात्र नारी हित की ही बात दोहराई गयी है और ऐसा शायद इसलिए भी संभव हो सका है क्यूंकि आज की भारतीय नारी ने गज़ब की दृढ़ इच्छा शक्ति का परिचय देते हुए मानव निर्मित इस समाज मे पुरुषों के समान अधिकार को दिये जाने और अपने हक़ की लड़ाई को लड़ने वाली पहल का सदैव समर्थन किया है| 
सदियाँ गवाह रहीं हैं कि प्राचीन काल से ही भारतीय नारियां पुरुषों के साथ कदम से कदम मिलाकर चलती रहीं हैं फिर वो चाहे युद्ध क्षेत्र हो या ज्ञान क्षेत्र सभी मे उन्होने अपनी मौजूदगी पूर्ण रूप से स्पष्ट की है यही नही उन्होने आगे बढ़कर पुरुषों के साथ तारतम्य स्थापित करते हुए विदेशी आक्रांताओं से राष्ट्र की सीमाओं की रक्षा भी की है| 
ऐसे मे समय की बहती धारा मे नारियों के अस्तित्व पर धीरे-धीरे पुरुषों का पुरुषत्व हावी होता चला गया जिसने स्त्रियों को देश की परिधियों से समेंट कर घर की चार दीवारी मे कैद कर दिया परंतु हौंसलों की ऊंची उड़ान उड़ने वाली भारतीय नारियों ने गाहे-बेगाहे इन चार दीवारियों की बेड़ियों को तोड़कर भारत राष्ट्र के गर्व पटल पर अपने साहस और शौर्य की अमिट दास्तान अंकित की| 
इतना ही नही उन्नीसवीं सदी आते-आते भारतीय नारियों ने घर की जिम्मेदारियों को अपना संबल बनाते हुए समाज की नकारात्मक घटनाओं से लड़ने मे भारतीय पुरुषों का बराबरी से साथ दिया फिर वो चाहे आजादी की लड़ाई हो या आजाद भारत का नव-निर्माण सभी मे नारियों ने पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर अपने कर्तव्य का बखूबी निर्वहन किया| 
इतने पर ही न रुकने वाला नर-नारी का ये अद्भुत सामंजस्य इक्कीसवीं सदी में भारत राष्ट्र की  एक नयी तस्वीर पूरी दुनिया मे प्रस्तुत कर रहा है चाहे वो सैन्य क्षेत्र हो, विज्ञान, खेल या राजनीति सभी क्षेत्रों मे ये समीकरण इतनी गहराई से समावेशित हो चुका है कि जिसके चलते आज पूरी दुनिया मे  हमारे देश को एक नही पहचान मिल रही है| 
वर्तमान मे नारियों की इस सबलता के पीछे पुरुषों के योगदान को भी कम करके नही आँका जा सकता और हर क्षेत्र मे महिलाओं की बढ़ती भागीदारी ने पुरुषों के सोच को बदलने पर मजबूर कर दिया| ऐसे मे हमारे समाज को अगर हमें तरक्की के नए रास्ते पर लेकर जाना है तो समाज के एक महत्वपूर्ण अंग परिवार को अपने कंधे पर आगे ले जाने वाली नारी की अनिवार्यता को समझना ही होगा जिसको आज का समाज बखूबी निभा रहा है|
ऐसे मे पुरुषों की सोच और समझ मे शामिल महिलाओं की दृढ़ इच्छाशक्ति और कर्तव्य निष्ठा वर्तमान मे पूरी दुनिया मे भारत को एक नयी बुलंदी पर लेकर जा रही है......अच्छा लगता है ये परिवर्तन!!!


शुक्रवार, 21 दिसंबर 2018

भारत के अतीत का गौरवशाली इतिहास: मात्र महिमामंडन या हकीकत



Great Hinduism Image

आज हम भारतीय पूरी दुनिया मे गर्व से सर ऊंचा कर ये कहते नही थकते हैं कि " हम भारतीय हैं और हमें हमारी राष्ट्रीयता पर नाज़ है| "

क्या? हमने ये कभी सोचा है कि हम भारतीयों के मनः पटल पर उकरी गर्व की ये अनुभूति हमें कहाँ से मिलती है, तो इसका सीधा उत्तर हमारे इतिहास मे छिपा है जहां से हमें वो ऊर्जा प्राप्त होती है जो सनातन काल से ही हमें विश्व नेतृत्व की क्षमता प्रदान करती है और ये मात्र हमारे इतिहास का महिमामंडन नही है अपितु यही हकीकत है| 

इतिहास साक्षी रहा है कि हमारे देश को विदेशी आक्रांताओं ने बार-बार लूटा है परंतु इन सबके बावजूद हमारे राष्ट्र के सामाजिक और सांस्कृतिक संस्कार इतने गहरे रहे हैं कि वो उखड़ने के बजाय हमेशा समृद्ध हुए हैं| 

आज मैं भारत के उस गौरवमयी इतिहास की बात कर रही हूँ जिसने दुनिया को समय-समय पर प्रगति के अनमोल तोहफे तो दिये लेकिन जिनके पद-चिन्हों को आगे बढ़ाने की होड़ मे शायद आज हम थोड़े पीछे रह गए हैं चाहे वो भारत के महर्षि कणाद का परमाणु सिद्धान्त हो या फिर ऋषि भारद्वाज का वायुयान की खोज का सिद्धान्त, इन सभी कड़ियों मे और नाम भी हैं जैसे प्राचीन गणितज्ञ और पाइथागोरस सिद्धान्त से पूर्व ही ज्यामिती के सूत्र रचने वाले बौधायन, न्यूटन से पाँच सौ वर्ष पूर्व ही गुरुत्वाकर्षण सिद्धान्त को जाननेवाले ऋषि भास्कराचार्य, भारत के मनोवैज्ञानिक और चिकित्सक की संज्ञा से विभूषित योगसूत्र के रचनाकार पातंजलि, आयुर्वेद के महत्वपूर्ण ग्रंथ चरक संहिता के जनक ऋषि चरक, शल्य चिकित्सा के आविष्कारक ऋषि सुश्रुत, रसायन शास्त्र और धातु विज्ञान के प्रस्तोता नागार्जुन, दुनिया को पहला व्याकरण देने वाले पाणिनी, थॉमस एलवा एडीसन के पहले ही बिजली के आविष्कार संबंधी ज्ञान देने वाले ऋषि अगस्त्य, महान गणितज्ञ और भविष्यवक्ता आर्यभट्ट, ये सभी कभी भारत की पहचान थे और जिन्होने आज हमपर उस परंपरा को आगे बढ़ाने की ज़िम्मेदारी सौंपी है| 

ऐसे मे हम सभी का ये उत्तरदायित्व है कि हम इतिहास पुरुषों के द्वारा दिये गए ज्ञान को अपना संबल बनाएँ और ऐसे भारत के निर्माण मे सहयोग दें जो युगों-युगों तक महिमामंडित होता रहे| 






रविवार, 16 दिसंबर 2018

वृद्धों का तिरस्कार: युवा पीढ़ी की मंशा या मजबूरी




अटूट है रिश्तो का बंधन,
अमिट है स्वरूप ये|
समय के वेग मे सहज हो,
रिश्तों का प्रारूप ये||
                 ("कैलाश कीर्ति (रश्मि)" द्वारा रचित)

वृद्धावस्था यानि मानवीय जीवन चक्र का वो पड़ाव जहाँ पहुँचकर मनुष्य जीवन और समाज से जुड़े सभी उतार-चढ़ावों से गुजरकर पूर्ण परिपक्व बन चुका होता है, परंतु प्रकृति प्रदत्त इस अवस्था तक पहुँचने के लिए उसे बाल्यावस्था, किशोरावस्था और युवावस्था की सीढ़ियों से होकर गुजरना पड़ता है जहाँ जिंदगी हर पल कुछ नया सिखाती जाती है|
ऐसे मे पूरी जिंदगी का तजुरबा हासिल कर चुके इन बुजुर्गों पर पिछले साल “वर्ल्ड एल्डर एब्यूस अवयरनेस डे” के अवसर पर “हेलपेज इंडिया”  द्वारा कराये गए सर्वे ने जब ये बताया कि भारत मे बुजुर्गों के साथ भी बहुत शर्मनाक व्यवहार होने लगा है तो इस बात ने मेरी अंतरात्मा को झकझोर कर रख दिया कि क्या यही हैं हमारे भारतीय मूल्य जिनपर हम विश्व गुरु होने का दम भरते हैं परंतु जब मेरे मन ने इनका मूल्यांकन प्रारम्भ किया तो मेरे सामने बहुत सारे चीजें भी निकलकर सामने आयी कि क्या आज की युवा पीढ़ी अपने बुजुर्गों के साथ जो व्यवहार कर रही हैं वो उनकी “मंशा है या फिर मजबूरी”?
मंशा और मजबूरी के बीच एक बारीक सा फासला है जिसमे आज की भाग दौड़ और प्रतिस्पर्धा से भरी जिंदगी का भी काफी योगदान है जिसने बुजुर्गों को ये सोचने पर मजबूर कर दिया है कि शायद उम्र के पड़ाव पर उनके अपने उनके साथ ऐसा जानबूझकर कर रहे हैं|
मैं ये नही कहती कि सभी मामलों मे ऐसा होता है परंतु बहुत से मामले ऐसे भी हैं जहाँ आज जिंदगी की जद्दोजहद अनगिनत गलतफहमियाँ पैदा कर देती हैं क्योंकि पीढ़ियों से मिले सद-आचार कभी इतने खोखले नही हो सकते जो रिश्तों की मर्यादा को न समझ सकें| बहुत से घरों मे बेटी-बहू के फर्क ने भी मानसिकता को परिवर्तित कर दिया है, ऐसे मे जितना उत्तरदायित्व युवाओं का है परिवार और रिश्तों को सजोने का उतना ही शायद बुजुर्गों का भी है| बुजुर्गों द्वारा मन की बात कह देने का मार्ग और युवाओं द्वारा उनके बातों को सुनकर समाधानपूर्ण मार्ग निकालने का विचार यदि एक साथ संयोजित हो जाए तो शायद आज भी भारत राष्ट्र की दृढ़ पारिवारिक परम्पराओं की जड़ें इतनी गहरी हैं कि कोई भी बुराई इनकी जड़ों को डिगा तक नही सकती|

रविवार, 9 दिसंबर 2018

क्यूँ दूर हो गए हम संयुक्त परिवार की धारणाओं से?


Nuclear Family Vs Joint Family

छूट गए सब रिश्ते नाते |

टूट गया वो बना घरौंदा ||

कुछ रिश्तों की डोर संभाले |

जाने हम आ गए कहाँ ||

जाने हम आ गए कहाँ…

         ("कैलाश कीर्ति (रश्मि)" द्वारा रचित)

 21वीं सदी मे दस्तक दे चुकी मानवीय सभ्यता को खुद मानव निर्मित इतिहास ने इतना कुछ दिया था कि उन्ही पर हम अपना भविष्य संवार रहे हैंआज हम सभी आगे बढ़ने और समाज मे एक मुकाम हासिल करने की प्रतिस्पर्धा मे जुटे हैं पर जब इन सब से परे होकर कभी शांत चित्त से अकेले मे बैठते हैं तो हमारा मन वही पुराने शोरगुल के लिए तड़पने लगता है जो कभी हमारे दादा-दादीनाना-नानीचाचा-चाचीताई-ताऊभाई-बहन आदि जैसे अनगिनत रिश्तों के बीच मिलता थाइतनी हलचल… के बावजूद दिल मे सुकून था जो आज की इस आपा-धापी मे कहीं खो गया है|

पहले भी इस धरा पर रहने वालों को दिन-रात के चौबीस घंटे ही मिलते थे और आज भी उतने ही मिलते हैं फिर भी वो कम ही लगते हैं क्योंकि हमने अपने आप को काम के सिलसिले मे इतना व्यस्त कर लिया है जिसके चलते परिवारों को छोड़ हमने अपनी अलग दुनिया बना ली है और परिवारों से अलग होने पर मिले इसी एकाकीपन के चलते स्ट्रेसडिप्रेशन जैसी लाइलाज बीमारियों ने हमें अपना शिकार बना लिया हैं|

क्या कभी हम सब ने ये सोचा है कि हमें ऐसा क्यों महसूस होता हैतो उत्तर है- सोचा तो हम सभी ने पर अब चीज़ें हमारे एकाधिकार से बाहर हो चली हैंशायद सत्यता भी यही है कि हमारे मन के कोने मे आज भी संयुक्त रूप से जुड़े परिवारों की परंपरागत यादें हिलोरें तो मारती हैं पर हम सब ने खुद अपने को उनसे दूर कर रखा है ऐसे मे अब हमें खुद ही आगे आना होगा ताकि जो हमें न मिला वो हम अपनी भावी पीढ़ियों को तो दे सकें|

रविवार, 2 दिसंबर 2018

आखिर हमने जहरीली क्यों कर दी हैं हवाएं?



Polluted Air


फिजाओं में न वो बात है

हवाएं भी न कुछ ख़ास हैं || 
न जाने क्यों हमीं ने ही
बदल दी है तस्वीर धरती की || 
स्वर्ग सी हो यही धरती
गगन भी श्वेत स्यामल हो || 
हवाओं का भी रुख बदले
फिजाएँ भी तो निर्मल हों || 
             
("कैलाश कीर्ति (रश्मि)" द्वारा रचित)                                   

हाल ही में देश की राजधानी दिल्ली से आयी इस खबर ने कि -"यह स्वास्थ्य  की आपात स्थिति है, क्योंकि शहर व्यवहारिक रूप से गैस चैम्बर में बदल गया है" ने हम सभी को एक पल के लिए ही सही ये सोचने पर जरूर मजबूर कर दिया कि अगर हवाओं में घुले इस जहर की आज ये स्थिति है तो आने वाले समय में क्या होगी? और हमारे सामने जी रही नयी पीढ़ी का क्या होगा-वगैरह-वगैरह...

जब कभी भी कोई समाचार हमारे देश या हमारे स्वास्थ्य से जुड़ा मिलता है तो हम एक पल के लिए ही सही काफी जागरूक हो जाते हैं पर अगले ही पल उसी के विरुद्ध कार्य करने में कोई कसर नहीं छोड़ते शायद ऐसा ही कुछ हमने अपने पर्यावरण के साथ भी किया है जिसका खामियाजा आज शुद्ध हवा के लिए तरसती हमारी एक-एक साँसों को भुगतना पड़ रहा है|

हमने विकास और आधुनिकता की चाह में पूरी पृथ्वी को ही असंतुलन की भेंट चढ़ा दिया है| हम मानवों की महत्वाकांक्षाओं की असीमित सीमाओं ने अगर कभी कुछ अच्छा करने के लिए प्रेरित भी किया तो अगले ही पल हमारे मन में पलते लालसा के भाव ने हमें पीछे धकेल दिया|

आज हमारे समाज में बहुत सारे संगठन, सरकार सभी पर्यावरण प्रदूषण की भेंट चढ़ती प्राण-वायु (ऑक्सीजन) को संभालने में लगे हैं, ऐसे में इस समाज से जुड़े होने के नाते हम सभी का ये कर्तव्य बनता है कि इनकी इस पहल में हम इनका साथ दें और अपनी धरा को जहरीली हवा के दमघोंटू आवरण से मुक्त करायें ताकि न केवल हम अपना वर्तमान सवारें अपितु अपनी पीढ़ियों को सौपें जाने वाले भविष्य के संरक्षक का दायित्व भी बखूबी निर्वाहित कर सकें

 

रविवार, 18 नवंबर 2018

क्यूँ नहीं हैं सुरक्षित बेटियां हमारे समाज में?


Daughter's Safety

गार्गी, घोषा, अपाला का, रूप हैं ये बेटियां ।
बेटियां ही मान हैं, तो अभिमान भी है बेटियां ।।
बेटियों से है धरा ,तो बोझ क्यूँ हैं बेटियां ।
काली,दुर्गा,लक्ष्मी का, रूप हैं जब ये बेटियां ॥
तो हमारे इस समाज में, अभिशाप क्यूँ हैं बेटियां ।
बेटियों ने जब संभाली है, सुरक्षा देश की ॥
तो हमारे इस समाज में, क्यूँ असुरक्षित है बेटियां ...
                           
("कैलाश कीर्ति (रश्मि)" द्वारा रचित)
21वीं सदी में प्रवेश किये भी हमे वर्षों बीत गए हैं फिर भी मेरे जेहन में ये सवाल बार-बार आकर ठहर जाता है कि आखिर क्यों हमारे इस समाज में आज भी बेटियां सुरक्षित नहीं हैं? आज हम जब कभी भी अपने इस प्रगतिशीत समाज का मूल्याङ्कन करने बैठते हैं तो हमारी बेटियों के साथ हो रहे अत्याचार इसकी गतिशीलता और संवेदनशीलता दोनों पर सवालिया निशान खड़ा कर देते हैं। यही नहीं 29 राज्यों वाले हमारे देश के प्रत्येक हिस्से से हमें हर रोज हमारी बच्चियों के साथ घटित होने वाली अप्रिय घटनाओं की जानकारी मीडिया व समाचार पत्रों के माध्यम से प्राप्त होती रहती है।

तो हम ये सोचने पर विवश हो जाते हैं की आखिर क्यूँ सृष्टि में ईश्वर द्वारा रचित इस अनमोल कृति को मानव रचित समाज में प्रवेश करने पर इतना सहना पड़ता है? क्यूँ हम बेटियों को इस संसार में प्रविष्टि पाने से पहले ही उनका मार्ग रोक देते हैं? और जो प्रविष्टि पा लेती हैं उनका जीवन भी किसी न किसी तरह दूभर करने में कोई कसर नहीं छोड़ते।

 क्या ऐसा नहीं हो सकता कि हम सब मिलकर इस धरा पर इन बेटियों के लिए ऐसा परिवेश निर्मित कर दें कि हर बेटी गार्गी, अपाला, घोषा, लक्ष्मीबाई, सुनीता विलियम, कल्पना चावला की परंपरा का निर्वाहक बनें न कि अपने नयनो से बहते अश्रुओं को संभालने वाली वेदना का... 

शनिवार, 10 नवंबर 2018

Diwali Wishes



दियों के प्रकाश से दिव्य सी दिशायें |
गुणगान गा रही हैं राम के प्रवेश का ||
सृष्टि में उल्लास है और मन में भी आनंद है |
क्यूँकि आज ही समावेश है अंधकार में प्रकाश का ||
अंधकार में प्रकाश का...

("कैलाश कीर्ति (रश्मि)" द्वारा रचित)

---आप सभी को दीपावली की हार्दिक शुभकामनायें---

भारत राष्ट्र को दरकार किसकी?___________ बुलेट ट्रेन या दो वक़्त की रोटी!

 
Bullet Train Vs Food


उदर की वेदना अब, चीत्कार कर रही है ।
नयनो की अश्रु धारा, विलाप कर रही है ।।
जीवन गति न रोक दे, विकास का अलाप ये । 
सचेतो अब मूर्धन्यों!
उदर की वेदना अब, चीत्कार कर रही है ।
चीत्कार कर रही है ।।
          "कैलाश कीर्ति (रश्मि)" द्वारा रचित

भारत________विश्व के मानचित्र पर अंकित एक ऐसा राष्ट्र जिसकी सशक्तता का इतिहास सदैव से साक्षी रहा है। सनातन काल से चली आ रही परम्पराओं ने तो इसे विश्व गुरु की संज्ञा से भी अलंकृत कर रखा है परन्तु इन सब के बावजूद क्या भारत का वर्तमान सही में ऐसा बन पा रहा है जो पुरानी परम्पराओं का निर्वहन करने में समर्थ हो? ये प्रश्न शायद आज भी अनुत्तरित है क्योंकि जिस भारत के विकसित होने का हम दम भर रहे हैं वो भारत ये भारत नहीं है जहाँ आज भी इसके नागरिकों को अपने जीवन की मूलभूत आवश्यकताओं (रोटी, कपडा और मकान) में से एक रोटी की समस्या से जूझना पड़ रहा है।

हाल ही में आयी ग्लोबल हंगर की रिपोर्ट ने इस बात की प्रमाणिकता पर अपनी मुहर भी लगा दी और इस तथ्य को पूर्णतया सत्य भी कर दिया कि कभी विश्व गुरु का दर्जा पाने वाले भारत के वर्तमान में दो रूप हैं, एक तरफ का भारत गगनचुम्बी इमारतों, चकाचौंध से भरी दुनिया का भारत है तो वहीँ दूसरी तरफ का भारत इससे बिलकुल अलग गरीबी, भुखमरी और बेकारी का भारत है।

असंतुलन का ऐसा भद्दा स्वरूप है ये जिसके आधार पर भारत के विश्व पटल पर पुनः विश्व गुरु कहलाये जाने के प्रश्न पर ही एक सवालिया निशान लग जाता है। ये कैसे समाज में हम रह रहे हैं जहाँ हम बुलेट ट्रेन और स्टैच्यू ऑफ़ यूनिटी की बात करते हैं लेकिन वास्तविकता ये है कि देश की 2/3 आबादी को हम दो वक़्त की रोटी तक दे पाने में सक्षम नहीं हैं।

कैसा विकास है ये? किसका विकास है ये? और किसके लिए विकास है ये? जिसे हम हमारे देशवासियों के जीवन को जीवंत रखने वाली दो वक़्त की रोटी के बदले छीन कर हासिल कर रहे हैं।

ऐसे में ये प्रश्न लाजिमी है कि आखिर हमारे देश को आज दरकार किसकी है ________बुलेट ट्रेन की या फिर भूख से बिलख रहे देश वासियों के दो वक़्त के निवाले की?

 

"आखिर हम क्यूँ नहीं समझते सांप्रदायिक सौहार्द की महत्ता को"




न तेरा हो, न मेरा हो ।
सौहार्द का बसेरा हो ।।
शान्ति का प्रकाश हो ।
और विकास का ही डेरा हो ।। ("कैलाश कीर्ति (रश्मि)" द्वारा रचित)

आज जब कभी भी मेरे श्रवणेन्द्रियों को धर्म के आधार पर घटी दुर्घटनाओं के श्रवणपान का अवसर प्राप्त होता है, मन उद्विग्न सा हो उठता है कि क्या यही उद्देश्य है इस मानव जीवन का, जब रचयिता ने धरा पर भेजते वक़्त धर्म की कोई मर्यादा तय नहीं की तो आखिर हम यहाँ आकर समाज द्वारा स्वनिर्मित किये गए मानकों को लेकर आपस में द्वेष भाव क्यूँ रखते हैं।

                     माना की समाज के बंधे दायरे में हम जन्म लेते हैं, फिर भी क्या हममे इतनी भी इच्छाशक्ति नहीं कि हम दुराभाव से परिपूर्ण तथ्यों को एक सिरे से नकार दें, सम्पूर्ण सृष्टि ने हम सभी को जीवन रूपी अनमोल उपहार देकर अलंकृत किया है तो फिर क्या हमारा ये कर्तव्य नहीं बनता कि हम अपनी अच्छाइयों से इस सृष्टि के वातावरण में अनुकूलता का ऐसा भाव घोल दें कि वैमनस्य के अंधकार से ये धरा मुक्त हो जाए। हम सभी कुदरत की अनमोल कृति हैं लिहाजा हम सभी को धर्म की मर्यादाओं से ऊपर उठकर इस दुनिया को देखना होगा 
तभी हमारी ये मानवीय दुनिया एक ऐसी दुनिया बन पाएगी जिसकी कल्पना शायद सृष्टि के निर्माता ने इसे बनाते वक़्त सोची होगी।

                       सोच के देखिये! कितना अच्छा होता यदि समाज में चारों तरफ शांति, सौहार्द और विकास का प्रकाश व्याप्त होता तो हम सभी का जीवन एक समान आकर्षक होता, अगर हम सामाजिक कुरीतियों से परे हटकर अपने समाज की संकल्पना भर कर लें तो हमारा मन आह्लाद के झूले में बैठकर आकाश की असीम ऊंचाइयां छूने लग जाता है।
क्या रखा है इस संप्रदाय, जाति, अमीर-गरीब, ऊंच-नीच को आधार मानकर लड़ी जाने वाली लड़ाइयों में, अंत में हमें हाँसिल क्या होता है? सिर्फ और सिर्फ बरबादी। तो क्या आप को नहीं लगता इन सबसे परे हटकर हम सभी को सौहार्द की ऐसी गंगा इस समाज में प्रवाहित करनी चाहिए जिसकी बहती अविरल धारा में हम कागज़ से बनी उस नाव को भी तैरा सकें जिसमे इस संमाज का, उसमे रहने वाले सामाजिक प्राणियों का सिर्फ और सिर्फ कल्याण छुपा हो ताकि इतिहास इस बात का साक्षी बने कि हम गतिशील हैं न कि गतिहीन।

"बच्चों की गूँज से सूनी हैं क्यों गलियां"



कहाँ गए वो गिल्ली-डंडे, कहाँ गयी वो आँख मिचौली
कहाँ गया वो हँसता बचपन, कहाँ गए वो गुड्डे-गुड़ियाँ
सूनी हैं आँगन गलियां अब, 
मैदानों की परिधियाँ तो, कमरों तक ही सिमट गयीं
रंग बिरंगे खिलौने अब, कम्पूटर से बदल गए
गूंज नहीं है बच्चों की अब
सन्नाटा सा पसरा है....सन्नाटा सा पसरा है!!
("कैलाश कीर्ति (रश्मि)" द्वारा रचित)

“बचपन”_____कुदरत द्वारा मानवीय जीवन को मिली एक अमूल्य धरोहर जिसको हम सभी जी भर के जीते हैं और ताउम्र न भुलाने वाली निधियों के रूप में संयोजित कर अपने अंतरमन में समेट कर रख लेते हैं और इन्ही निधियों की कोठरी में से एक-एक कर किस्सों को निकालते हैं और बचपन के प्रवाह वेग से आगे निकल चुके युवा जीवन को सजाते और सवांरते रहते हैं, इतना ही नहीं हम सभी हमारे बचपन में हमें मिली दादी-नानी की सीख से इतना कुछ सीख जाते हैं कि उसी आधारशिला पर अपने भविष्य का ताना बाना बुन लेते हैं और तो और बचपन में संगी-साथियों के साथ हंसी ठिठोली में की गयी बातें भी हमारे चेतन व अवचेतन मन को उम्र के हर पड़ाव में गुदगुदाती रहती है और एकांत में बैठे हमारे उदासीन चेहरे को भी मुस्कान रूपी किरणों की चंचलता से शोभायमान कर देती हैं।

                             बचपन में हम सभी ने जी भर कर गिल्ली-डंडे, बैट-बाल, लुका-छिपी, आँख-मिचौली जैसे अनगिनत खेलों को खेलकर अपना बचपन जीया है, मिट्टी के बने वो रंग-बिरंगे खिलौने, वो दादी-नानी के साथ मेलों में जाकर घूमना ऐसी न जाने कितनी बाते हैं जो हम सभी के मन को संगीत की उस अनसुनी झंकार से झंकृत कर देती हैं जो कभी हमने सुनी थी।
परन्तु आज हम अपने वत्सल ह्रदय पर सच्चे मन से हाथ रख कर सोचें तो क्या हम ये तय कर पाएंगे कि वर्तमान परिस्थिति में हमारे स्नेह से सिंचित किये जा रहे आज के बालमन को क्या हम वही बचपन दे पा रहे हैं; जिनकी यादें उन्हें उम्र भर गुदगुदा पाएंगी। क्या है? उनके यादों के खजानो में जो वे आने वाली पीढ़ियों से हमारे तरह ही बांट पाएंगे।
ये हमने उन्हें आधुनिकता और विकसित कहलाने की चाह में क्या दे दिया है___कंप्यूटर और मोबाइल! अधाधुंध बढ़ती प्रतिस्पर्धा ने हमारे जीवन को तो पहले ही उद्वेलित कर रखा था और उसी उद्वेग को हमने अपने बच्चों में प्रेषित कर दिया है। ये संसाधन भले ही उन्हें कुछ अच्छी और उपयोगी चीजें सीखा रहे हैं परन्तु उसके बदले वे उस बचपन, उस संग-साथ, उस परिवार की भावना को भी उनसे छीन रहे हैं जो सदियों से बच्चों की अनमोल धरोहर रही है।
वो साथियों की टोलियां बनाकर घूमना, त्यौहार का बेसब्री से इंतज़ार और आने पर उसके एक-एक पल को जी लेना, दादा-दादी के गोद की सानिध्य में बैठकर किस्से कहानियों का सुनना, नाना-नानी के घर जाने का इंतज़ार, वे मस्तानी गर्मी की छुट्टियों का बर्फ के गोले खाने का इंतज़ार, बाल कहानियों से पुस्तकों और कॉमिक्स के लिए माता-पिता से मिलने वाली पॉकेट मनी का इंतज़ार ऐसी ही न जाने कितनी बातें जो अब सिमटकर कंप्यूटर और मोबाइल के कीबोर्ड तक ही रह गयी हैं।

                            अब न मैदानों में वो हलचल है, न ही कमरों के बाहर बच्चों की वो गूँज और न ही उनके पीछे आनेवाली दादा-दादी और नाना-नानी के सख्त तल्खियां हैं---सब कुछ बदल सा गया है____बच्चों की गूँज में छाए सन्नाटे के साथ अब सब सूना-सूना सा है!!!!

"सहमा सा शहर क्यों है"



चल उठ पथिक ! अब डोर सम्हाल |
नहीं वक़्त है सोने का ||
कब तक रहेगा दीर्घा में तू |
कभी उतर मैदान में आ || ("कैलाश-कीर्ति (रश्मि)" द्वारा रचिंत )

"शहर" जिसका जिक्र आते ही हम सभी के चक्षु पटल को चकाचौंध करती एक ऐसी दुनिया का दर्शन प्राप्त हो जाता जो परी लोक के दिव्य स्वरुप को साकार करता प्रतीत होता है, किन्तु हक़ीक़त इससे परे है| झिलमिल करती रोशनी से नहाये वर्तमान शहर आज मानव और मानवीय जीवन के मूल्यों की ऐसी धज्जियाँ उड़ा रहे हैं जो पूरे ब्रम्हांड को ही शर्मसार कर दे|
शहर जिनकी परिकल्पना ग्रामों से ऊपर उठ कर इस लिए की गयी ताकि मानवीय जीवन की ग्राम रूपी आत्मा को विकास की नैय्या में बिठाकर गगन छू लेने की आकांक्षा की प्रतिपूर्ति की जा सके, पर क्या पता था कि जिस विकास के जरिये मानवीय अंश अपनी खुशहाली कि नयी इबारत लिखना चाहता था वही आज उसकी मायूसी का कारण बन गया है| आज जब भी हम गावों से निकलकर शहरों की तरफ आते हैं तो इन शहरों की आकर्षित करने वाली भूल-भुलैय्या में खो से जाते हैं परन्तु वर्तमान में जिस तरह की तस्वीर शहरों ने प्रस्तुत की है वो मानवता के उस वीभत्स स्वरुप को प्रदर्शित कर रहा है जो इस सृष्टि के सर्जक को भी रोने के लिए मजबूर कर दे|
                           शहरों में आज की जिंदगी इस बात का पर्याय बन चुकी है कि स्वस्थ प्रतिस्पर्धा को परे रख लोग अपना हित साधने में लगे हैं और तो और आये दिन शहरों में हो रहे अपराध अनगिनत मानवीय जिंदगियों को दावं पर लगाकर अपनी चमक को कायम रखने का वास्ता दे रहे हैं| हाल ही में मुंबई शहर से आयी इस घटना सूचना ने मेरे अंतर्मन को एकदम से झकझोर दिया| जब एक प्राइवेट संस्था में कार्यरत कर्मचारी को सिर्फ कुछ पैसों के लिए मौत के घाट उतार दिया गया और उसके परिवार को ताउम्र न भूलाने वाला एक जख्म दिया गया जिसकी आहट से हर शहरी नागरिक हतप्रभ है| क्यूँ आखिर हम शहरों में सुरक्षित रहने के लिए ही जंग लड़ रहे हैं? क्या होगा इन भौतिक मूल्यों वाली इन सुख सुविधाओं का जब इन्हे भोगने के लिए हम ही न होंगे| क्यों हर दिन इन शहरों में बढ़ते अपराध क्रम दिन और रात के संतुलन को भी धराशायी करने में सफल हो रहे हैं|
                             क्या हुआ उस भाई चारे का जो शहरों में आकर कहीं खो सा गया है| क्यों हमारे गावं से निकली प्रेमालाप के गंगा शहरों के वहशीपन का शिकार हो रही है|

बस बहुत हो चूका ! अब हम सभी को अपनी-अपनी इस निर्णायक भूमिका को स्वीकारना ही होगा क्योंकि कब तक हम सभी घुट-घुटकर और सहम-सहमकर ईश्वर द्वारा प्रदत्त मानवीय जीवन कि इस अमूल्य निधि के साथ दुर्भाव करते रहेंगे|

"राजनैतिक पार्टियों द्वारा उदघोषित भारत बन्द में पिसता आम जनमानस"


पिछले कुछ दशकों से लोकतंत्र में मिले अभिव्यक्ति के अधिकार का जिस तरह से दुरूपयोग भारतीय परिवेश में हो रहा है उसे अवलोकित करने के बाद हम आम जन की चेतन मन: स्तिथि जिस प्रकार से छिन्न-भिन्न हो रही है उससे इस तथ्य का अंदाजा लगा पाना मुश्किल हो गया है कि भारत का आम नागरिक स्वयं को संगृहीत और संगठित बनाये रखने के लिए आवश्यक मन बल जुटाए या फिर समृद्धवान और शक्तिशाली बनाने के लिए शारीरिक बल|

                          लोकतंत्र के नाम पर जिस तरह से घनघोर हिंसा का प्रदर्शन राजनीतिक दल अपने स्वार्थ सिद्धि के लिए कर रहे हैं उसे देख कर तो यही लगता है कि भारत सिर्फ और सिर्फ इन राजनीति के पहरेदारों की कठपुतली बनकर नाचने वाले एक देश के रूप में स्वयं को वैश्विक पटल पर प्रस्तुत कर पा रहा है क्योंकि राजनैतिक दलों द्वारा बुलाया गया बंद हमारे राष्ट्र की एक भयावह तस्वीर ही दुनिया के सामने प्रस्तुत कर पा रहा हैं जो कभी "विश्व गुरु" रहे भारत के लिए काफी शर्मनाक है| यही नहीं इनके जनता के बुलाये जा रहे अचानक भारत बंद से आम जनमानस किन तकलीफों से स्वयं को दो-चार कराता है इसका भी इन्हे ज्ञान नहीं, ऐसा बंद भी किस काम का जो पूरे राष्ट्र की गति को ही रोकने की एक नाकाम कोशिश भर हो इसके अलावा कुछ नहीं| क्या यही है भारतीय गणराज्य के संविंधान द्वारा जनता को, जनता के लिए, जनता के द्वारा समर्पित किये गए अधिकार, क्या ये राष्ट्र और इसके राजनेता इन तथ्यों को क्यूँ नहीं सोचते की सभी एक साथ मिलकर ऐसी सामान विचारधारा बनाये जिसमे धर्म, मजहब, जाति, ऊंच-नीच, अमीर-गरीब सबके फैसले ख़त्म हो जाएँ और एक नए भारत का नवनिर्माण हो|

                           क्यूँ और कब तक भारत और भारतीय जनमानस को मुठ्ठी भर राजनेताओं का एक कुनबा अपने इशारों पर नाचता रहेगा| अहिंसक रहने की सलाह देने वाले नेता आखिर क्यूँ देश की गति को रोककर अपनी बात मनवाने में विश्वास रखते हैं, ऐसे तो नहीं है की इनके लिए भारत बन्द एक ऐसा जुमला बन गया है जिसके जरिये ये अपने राजनितिक दलों का प्रचार करते हैं क्योंकि राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय मीडिया भारत बन्द की कवरेज बड़े पैमाने पर टेलीकास्ट करता है और लोकतंत्र के चक्रव्यूह में पिसते आम जन तक इनकी बात आसानी से पहुँच जाती है जो वोट के अधिकार को गुमराह करने का काम करती हैं|

भारत बंद से दफ्तर बन्द, स्कूल बन्द, काम-काज बन्द, रेलवे बन्द, दुकान बन्द, अस्पताल बन्द, इलाज बंद, व्यापर बंद, सबकुछ बन्द - ये कैसा बन्द? जिसमे नारा तो होता है जनता की भलाई लेकिन पिसती जनता ही है और न जाने कितने मासूमों की बलि लेने के बाद भलाई की ये दुकान बन्द होती है और भारत चालू होता है|

एलोपैथिक और आयुर्वेदिक चिकित्सा पद्दति का एक तुलनात्मक अध्ययन


विश्व पटल पर आज अमेरिका से आये इस समाचार ने पूरे विश्व में आज इस बात को और गति प्रदान कर दी है की चिकित्सा के क्षेत्र में भारतीय आयुर्वेदिक पद्दति एलोपैथिक पद्दति से ज्यादा उपयुक्त है| ऐसे इस लिए है क्योंकि अमेरिका के एक जर्नल में प्रकशित एक लेख ने किडनी के बीमारी को न बढ़ने से रोकने के लिए भारतीय पद्दति में प्रचलित पौष्टिक आहार के परंपरा और भारतीय आयुर्वेदिक चिकित्सा पद्दति को ही उपयुक्त माना है अर्थात चरक और सुश्रुक की देन कहे जाने वाले आयुर्वेदिक चिकित्सा पद्दति का लोहा आज पूरी दुनिया ने मान ही लिया|

                    आज हम अगर स्वस्थ्य के नज़र से पूरी दुनिया पर नज़र डालें तो हम पाते हैं जहाँ एक तरफ अवयवस्थित जीवन शैली और खान पान ने डायबटीज़ और हाइपरटेंशन (ब्लड प्रेशर) की बीमारी ने पूरी दुनिया के १४३ मिलियन लोगों को अपनी चपेट में ले रखा है इसके अलावा ह्रदय रोग, कैंसर, ब्रेन स्ट्रोक जैसे बीमारियों के खतरे मानवीय जीवन का समापन करने के तो मानो प्रवाहक बन गए हैं लेकिन अगर हम एलोपैथिक चिकित्सा पद्दति से परे हट कर आयुर्वेदिक चिकत्सा पद्दति को अपनाये तो इन बीमारियों को नियंत्रित करने में ज्यादा सक्षम पाएंगे ऐसा शोधों से सिद्ध हो चुका है| एलोपैथिक दवाओं की तुलना में अगर आयुर्वेद में उपलब्ध औषधिओं के साथ ही योग और पौष्टिक आहार को भी जीवनशैली का हिस्सा बना पाएं तो डायबिटीज़ और हाइपरटेंशन जैसी समस्याओं से एक हद्द तक निपटना आसान हो जायेगा| 


                    हमारी आयुर्वेदिक पद्दति के चिकित्सा में तो मधुमेय से लड़ने के लिए उपलब्ध औषधियां ऐसी हैं जिनके हम रोज़ मर्रा के भी दैनिक चर्या में भी इस्तेमाल करते हैं जैसे मोमोर्डिका, चरन्तीए (बिटर मेलॉन यानि करेला) ये शरीर में न केवल शुगर लेवल को नार्मल करता हैं अपितु ट्राइग्लिसराइड और कोलेस्ट्रॉल को भी नियंत्रित करने में भी सक्षम हैं| ये इम्यून सिस्टम को भी मजबूत बनता हैं| गैमनेमासिलवेट्रे ये एक हर्ब हैं जो शुगर लेवल को मैनेज करती हैं, इसी प्रकार अन्य हर्ब भी हैं जो हमारे किचन में उपस्थित हैं जैसे पेट्रोकॉर्पस, मारसुबियम, सलाकिएरेट्रेकुलट्टा, करकमलोंगा (टर्मेरिक), जम्बोलाना (जामुन) जैसे अनगिनत औषधियां हैं| इसके अलावा ह्रदय रोग को ठीक करने की सबसे कामगार औषधि है - अर्जुन चूर्ण व लौकी जूस का नियमित सेवन, कैंसर के लिए गौमूत्र पीना लाभकारी है| इस तरह भारतीय आयुर्वेदिक पद्दति के जरिये अगर हम वर्तमान में बीमारियों को दूर करने का प्रयास करें तो एलोपैथिक चिकित्सा पद्दति की तुलना आयुर्वेदिक चिकित्सा पद्दति में संभावनाएं ज्यादा हैं| आयुर्वेदिक चिकित्सा पद्दति मनुष्य को बीमारी शुरू होने के पहले ही क्योर करने का मार्ग दीखता है पर एलोपैथिक चिकत्सा पद्दति में हम बीमारी होने के बाद उसके दुरस्तीकरण के लिए उसके शरण में जाते हैं| मेरा तो यही मानना है कि "जान है तो जहान है" की परंपरा पर चल कर प्रत्येक मनुष्य को अपने जीवन के मूल्य को समझाना होगा और "प्रिवेंशन इस बेटर देन क्योर" के फॉर्मूले को अपने जीवन में शामिल करना होगा|

क्या मानवाधिकार की बात करते-करते हम मानवता से ही दूर नहीं हो गए?



वर्तमान भारतीय परिवेश में जब भी हमारे कानों में भीड़ द्वारा हत्या किये जाने की ध्वनि का संचार होता है उसी वक़्त हमारे जेहन में ये बातें तीव्र गति से चलायमान हो जाती हैं कि क्या मानवाधिकार को सुरक्षित रखने कि दुहाई देने वाला ये जनमानस मानवता से ही तो दूर नहीं हो गया| आखिर क्यूँ सिर्फ कही सुनी बातों में आकर हम एक इंसान कि हत्या का जघन्य अपराध करने पर आमदा हो जाते हैं, क्या ये लोकतंत्र है और हम आजाद है? क्या यही इन जैसे शब्दों को परिभाषित करता है?

अतीत और वर्तमान दोनों गवाह है कि जब भी कहीं मानवता शर्मसार हुई है दुनिया भर के मानवतावादी हितसंरक्षकों ने इसके खिलाफ आवाज उठाई है और भरसक कोशिश भी की है की पीड़ितों को न्याय और इन्साफ मिले और इन्ही हितवादियों को सारता प्रदान करती सोच को हम अपने जीवन के प्रत्येक पहलू में स्वयं के लिए भुनाने की कोशिश करते हैं और जब बात दूसरों की आती है तो हम स्वयं क्यूँ तैयार हो जाते हैं उस भीड़ का हिस्सा बनने के लिए जो दूसरों के मानवाधिकारों को रौंदने पर आमदा होती है, अभी हाल ही में बच्चा चोर समझ कर की गयी एक सॉफ्टवेयर इंजीनियर की हत्या हो या पशु चोर समझ कर की गयी दूसरी हत्यायें- इन सभी हत्याओं को भीड़ ने ही अंजाम दिया है|

इस देश में क़ानून व्यवस्था के रहते हुए भी आखिर भीड़ ने क्यूँ ऑन द स्पॉट फैसला सुनाते हुए इनकी जान ले ली, क्या इन्हे ये मौलिक अधिकार भी नहीं था कि वो अपनी बात रख सकते, आखिर क्यूँ हम इतना भटक गए हैं? क्या डिजिटल क्रांति को हथियार बनाकर भीड़ तंत्र द्वारा ऐसे ही मानवता कि धज्जियाँ उड़ाई जाती रहेंगी|

क्योंकि अगर इस देश में इसके खिलाफ कोई कानून बन जाये तो भी उसे अमलीकृत करने में कानून प्रतिनिधियों के साथ-साथ हम सब की भी उतनी ही जवाबदेही है जितनी सरकार की, लिहाजा अगर हम मानवाधिकारों को स्वयं के लिए मांगते हैं तो हमें दूसरों के अधिकारों का भी ख्याल रखना होगा और ईश्वर द्वारा प्रदत्त मानवता यानि इंसानियत के उपहार का भी निजी जीवन में पालन करना होगा तभी हमारा समाज, हमारा देश, हमारा विश्व समग्र और समृद्ध बन पाएंगे|

"राष्ट्र भाषा हिंदी की उपयोगिता"____हिंदी जनमानस के परिप्रेक्ष्य से





"भाषा"________एक माध्यम भावनाओं की अभिव्यक्ति का और भाषा अगर मातृ भाषा हो तो भावनाओं की अभिव्यक्ति तो ऐसे निकलकर लेखनी में उतर जाती है कि कागज़ रूपी कैनवास भी कम पड़ जाए इन्हे चित्रमाला में पिरोने के लिए|

हिंदी एक ऐसी भाषा है जिसे आज पूरे वैश्विक पटल पर मात्र एक दिशा देने की आवश्यकता है क्योंकि 7.6 बिलियन आबादी वाले इस विश्व में हिंदी भाषा को माध्यम बनाकर अपनी भावनाओं की अभिव्यक्ति करने वालों की संख्या इतनी ज्यादा है कि इस भाषा को वैश्विक पटल पर भाषा के रूप में अपनाये जाने के कारण इसे चतुर्थ स्थान प्राप्त है| हिंदी भाषा के माध्यम से अपनी छिपी और सारगर्भित तथ्यपूर्ण बातों से हम दूसरों को अवगत करा सकें यही उद्देश्य हर हिंदी भाषी के अंतर्मन को बार-बार उद्वेलित करता है, ऐसा इस लिए है क्योंकि कभी-कभी भाषा के चलते हमारे सामने मुश्किलें ये आती हैं कि हम अपनी बात अपनी मातृ-भाषा में धाराप्रवाह तो बोल सकते हैं परन्तु दूसरी अन्य भाषा इसे संक्षिप्त कर देती है|


लिहाजा आज जरुरत इस बात की है कि हमारी समग्र और समृद्ध हिंदी को हम इतना विकसित करें कि वो उन आम जन को भी एक मंच प्रदान करे जो भाषा के चलते अपनी बात रख नहीं पाते| हिंदी न केवल हमारी राष्ट्र भाषा है अपितु देश के 70% आबादी का भी प्रतिनिधित्व करती है और वैश्विक आंकड़े भी इनमे जुड़ जाए तो ये और बड़ा हिस्सा अपने अंतर में समाहित किये हुए है| वर्तमान में हिंदी कि उन्नति का द्वार इस लिए भी खुल गया है क्योंकि विदेश से आने वाली कंपनियां भी हिंदी भाषा का प्रयोग, हिंदी बोलने वाले ग्राहकों के अत्यधिक जन-बल के कारण ज्यादा से ज्यादा करने की जुगत में लगी हैं|


लिहाजा 21वीं सदी का ये दशक बहुत उपयुक्त समय है "रामधारी सिंह दिनकर", "मुंशी प्रेमचंद्र", "महादेवी वर्मा", "सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला'", "सुभद्रा कुमारी चौहान", "मैथिली शरण गुप्त" जैसे हिंदी के धुरंधरों की परम्परा को आगे बढ़ाने का और भाषा के चलते आ रही अभिव्यक्ति की असमर्थता से निपटने का|

हम सबका गर्व - हिंदी




14 सितम्बर (हिंदी दिवस)_______________एक अविस्मरणीय तिथि, जो साकार स्वरुप है उस विचारधारा का जो अतीत से कर वर्तमान तक हिन्द राष्ट्र की अविरल बहती हिंदी रूपी धारा से न केवल भारत अपितु दुनिया के कोने-कोने को सिंचित कर रही है|

भारत अंतराष्ट्रीय मानचित्र पर रेखांकित एक ऐसा देश है जिसकी गौरवमयी ऐतहासिक गाथा के गान से सम्पूर्ण विश्व गुंजायमान हो रहा है| ऐसे में भारत की पहचान को और भी सशक्त, समृद्ध और समग्र बनाने में इस देश की राष्ट्रभाषा का योगदान भी कम प्रशंसनीय नहीं है| परन्तु आज हिंदी के इस सम्मानजनक अवस्था में पदार्पित करने के पूर्व इससे जुड़े इतिहास का भी आकलन महत्वपूर्ण हो जाता है क्यूंकि चर्चा ही "हिंदी की समग्रता" की है|

भारत एक ऐसा राष्ट्र, जिसकी धन्यता और सम्पन्नता की कहानियों ने सदैव से दुनिया भर के आक्रांताओं को अपनी तरफ आकर्षित किया है और जब ये आक्रांता भारत-माता की सीमाओं में प्रविष्ट हुए तो निरंतर दोहन की उनकी मानसिकता ने उन्हें यहाँ रुकने के लिए मजबूर कर दिया और इसी के चलते भारत राष्ट्र और भारतीय जनमानस ने अनगिनत वर्षों तक गुलामी की कैद में स्वयं को ही तर्पित कर दिया |

परन्तु इतिहास ने करवट ली और भारत माता के वीर सपूतों के शौर्यवान प्रदर्शन ने 15 अगस्त 1947 को भारत को आजादी के रथों पर बिठाकर विश्व मंच के पटल पर प्रेषित कर दिया लेकिन माँ भारती के नीति-निर्माताओं के लिए सबसे बड़ी चुनौती थी वो थी एक ऐसी भाषा जो भारत माँ को कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक एक-एका के सूत्र में पिरो सके क्यूंकि पूर्व से ही विविध भाषाओँ से परिपूर्ण भारत को अपने स्वार्थ सिद्धि के लिए अंग्रेजों ने अंग्रेजी भाषा के भरपूर प्रयोग से आच्छादित कर रखा था लेकिन भारत का एक बड़ा हिस्सा इससे भी अछूता था|

लिहाजा अंग्रेजी भाषा के बढ़ते प्रचलन को रोकने और स्वयं के भाषा की तरजीह देने की जद्दोजहद के बीच भारत के नीति-निर्माताओं ने आज ही के दिन 14 सितम्बर 1949 को हिंदी को राजभाषा का दर्जा दे दिया| तब से लेकर आज तक हिंदी सदैव पुष्पित और पल्लवित हुई है|

परन्तु दुःख इस बात का है कि सम्पूर्ण विश्व की भाषा बन चुकी अंग्रेजी ने आज तक इसके सरल पथ को जटिल बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी है| आधुनिकता और दिखावे की चादर में लिपटा भारतीय जनमानस का एक तबका हिंदी आते हुए भी उससे एक दूरी बनाये हुए है, कहीं-कहीं अंग्रेजी बोलना स्टेटस सिंबल तक बन गया है फिर भी इन सभी नकारात्मक मनः स्तिथियों के होते हुए भी भारत की गर्व बनी हमारी भाषा हिंदी आज दुनिया के प्रत्येक कोने में सम्माननीय दर्जा पाने में सफल सिद्ध हो रही है|

अटल बिहारी वाजपेयी के निधन से सैद्धांतिक राजनीति में आयी रिक्तता



16 अगस्त, 2018 का वो दिन जब अभी एक दिन पूर्व ही भारत राष्ट्र ने अपनी स्वतंत्रता का 72वां जन्मदिन मनाया था, राष्ट्र के भाग्य को क्या पता था कि आज के इस जश्न के बाद ही उसे एक ऐसे सच का सामना करना है जो भारतीय राजनीति का भाग्य प्रवर्तक सिद्ध होगा क्योंकि 16 अगस्त, 2018 को भारतीय राजनीतिक मंच ने अपने एक अद्भुत वाकशक्ति से ओत-प्रोत और सैद्धांतिक मूल्यों से लबरेज एक ऐसे व्यक्तित्व को खो दिया जिसके सत्य से परिपूर्ण आदर्श कि रिक्तता भारतीय राजनीति के आभा मंडल को सदैव झकझोरती रहेगी|

एक सिद्धहस्त राजनीति के नेतृत्व कर्ता माननीय अटल बिहारी वाजपेयी का निधन भारतीय राजनीति के पटल को मूल्यों पर आधारित राजनीति करने वाले नेतृत्व से मरहूम कर गया| भारतीय राजनीति को विनम्रता, सच्चाई और त्याग का मंत्र देने वाले राजनीति के इस महान प्रणेता ने इस धरा से स्वयं को विच्छेदित तो कर दिया और छोड़ गया भारतीय राजनीति में एक खालीपन| "राजनीति के भीष्मपितामह" कि संज्ञा से विभूषित इस महान राजनीतिक योद्धा के कर्म क्षेत्र में किये गए इनके अमूल्य योगदान हमेशा हमारी नयी पीढ़ी के राजनीतिज्ञों के पथ प्रदर्शक तो बनेगे पर उन्हें वो कितना अमलीकृत कर पाएंगे ये वक़्त बताएगा||