जीवन की इस मधुरिम बेला मे, आप सभी का स्वागत है |
छोड़ गया है साल पुराना, अमिट धरोहर यादों की
नये वर्ष ने पाँव पसारा, लेकर उम्मीद मुरादों की ||
कहते हैं किसी लेख में प्राण वायु तभी उपजती है जब उसे पढ़ने वाले सच्चे पाठक मिल जायें| मेरी लेखनी को भी दरकार इसी भावना की थी लिहाजा मानवीय जीवन के इर्द-गिर्द हो रही समग्र प्रेरक और अंतर्मन को उद्द्वेलित कर देने वाली घटनाओं को अपनी लेखनी के माध्यम से समाज के अन्य जनों तक पहुंचाने की आकांक्षा ने मुझे ये ब्लॉग लिखने की प्रेरणा दी|
छूट
गए सब रिश्ते नाते |
टूट
गया वो बना घरौंदा ||
कुछ
रिश्तों की डोर संभाले |
जाने
हम आ गए कहाँ ||
जाने
हम आ गए कहाँ…
("कैलाश कीर्ति (रश्मि)" द्वारा रचित)
21वीं सदी मे दस्तक दे चुकी मानवीय सभ्यता को खुद मानव निर्मित इतिहास ने इतना कुछ दिया था कि उन्ही पर हम अपना भविष्य संवार रहे हैं| आज हम सभी आगे बढ़ने और समाज मे एक मुकाम हासिल करने की प्रतिस्पर्धा मे जुटे हैं पर जब इन सब से परे होकर कभी शांत चित्त से अकेले मे बैठते हैं तो हमारा मन वही पुराने शोरगुल के लिए तड़पने लगता है जो कभी हमारे दादा-दादी, नाना-नानी, चाचा-चाची, ताई-ताऊ, भाई-बहन आदि जैसे अनगिनत रिश्तों के बीच मिलता था, इतनी हलचल… के बावजूद दिल मे सुकून था जो आज की इस आपा-धापी मे कहीं खो गया है|
पहले
भी इस धरा पर रहने वालों को दिन-रात के चौबीस घंटे ही मिलते थे और आज भी उतने ही
मिलते हैं फिर भी वो कम ही लगते हैं क्योंकि हमने अपने आप को काम के सिलसिले मे
इतना व्यस्त कर लिया है जिसके चलते परिवारों को छोड़ हमने अपनी अलग दुनिया बना ली
है और परिवारों से अलग होने पर मिले इसी एकाकीपन के चलते स्ट्रेस, डिप्रेशन जैसी
लाइलाज बीमारियों ने हमें अपना शिकार बना लिया हैं|
क्या कभी हम सब ने ये सोचा है कि हमें ऐसा क्यों महसूस होता है? तो उत्तर है- सोचा तो हम सभी ने पर अब चीज़ें हमारे एकाधिकार से बाहर हो चली हैं, शायद सत्यता भी यही है कि हमारे मन के कोने मे आज भी संयुक्त रूप से जुड़े परिवारों की परंपरागत यादें हिलोरें तो मारती हैं पर हम सब ने खुद अपने को उनसे दूर कर रखा है ऐसे मे अब हमें खुद ही आगे आना होगा ताकि जो हमें न मिला वो हम अपनी भावी पीढ़ियों को तो दे सकें|
हवाएं भी न कुछ ख़ास हैं ||
न जाने क्यों हमीं ने ही |
बदल दी है तस्वीर धरती की ||
स्वर्ग सी हो यही धरती |
गगन भी श्वेत स्यामल हो ||
हवाओं का भी रुख बदले |
फिजाएँ भी तो निर्मल हों ||
("कैलाश कीर्ति (रश्मि)" द्वारा रचित)
हाल ही में देश की राजधानी दिल्ली से
आयी इस खबर ने कि -"यह स्वास्थ्य की आपात
स्थिति है, क्योंकि शहर व्यवहारिक रूप से गैस चैम्बर में बदल
गया है" ने हम सभी को एक पल के लिए ही सही ये सोचने पर जरूर मजबूर कर दिया कि
अगर हवाओं में घुले इस जहर की आज ये स्थिति है तो आने वाले समय में क्या होगी? और हमारे सामने जी
रही नयी पीढ़ी का क्या होगा-वगैरह-वगैरह...
जब कभी भी कोई समाचार हमारे देश या हमारे स्वास्थ्य से जुड़ा मिलता है तो हम एक पल के लिए ही सही काफी जागरूक हो जाते हैं पर अगले ही पल उसी के विरुद्ध कार्य करने में कोई कसर नहीं छोड़ते शायद ऐसा ही कुछ हमने अपने पर्यावरण के साथ भी किया है जिसका खामियाजा आज शुद्ध हवा के लिए तरसती हमारी एक-एक साँसों को भुगतना पड़ रहा है|
हमने विकास और आधुनिकता की चाह में पूरी पृथ्वी को ही असंतुलन की भेंट चढ़ा दिया है| हम मानवों की महत्वाकांक्षाओं की असीमित सीमाओं ने अगर कभी कुछ अच्छा करने के लिए प्रेरित भी किया तो अगले ही पल हमारे मन में पलते लालसा के भाव ने हमें पीछे धकेल दिया|
आज हमारे समाज में बहुत सारे संगठन, सरकार सभी पर्यावरण प्रदूषण की भेंट चढ़ती प्राण-वायु (ऑक्सीजन) को संभालने में लगे हैं, ऐसे में इस समाज से जुड़े होने के नाते हम सभी का ये कर्तव्य बनता है कि इनकी इस पहल में हम इनका साथ दें और अपनी धरा को जहरीली हवा के दमघोंटू आवरण से मुक्त करायें ताकि न केवल हम अपना वर्तमान सवारें अपितु अपनी पीढ़ियों को सौपें जाने वाले भविष्य के संरक्षक का दायित्व भी बखूबी निर्वाहित कर सकें|
गार्गी, घोषा, अपाला का, रूप हैं ये बेटियां ।
बेटियां ही मान हैं, तो अभिमान भी है बेटियां
।।
बेटियों से है धरा ,तो बोझ क्यूँ हैं बेटियां ।
काली,दुर्गा,लक्ष्मी का,
रूप हैं जब ये बेटियां ॥
तो हमारे इस समाज में, अभिशाप क्यूँ हैं
बेटियां ।
बेटियों ने जब संभाली है, सुरक्षा देश की ॥
तो हमारे इस समाज में, क्यूँ असुरक्षित है बेटियां ...
("कैलाश कीर्ति (रश्मि)"
द्वारा रचित)
21वीं सदी में प्रवेश किये भी हमे वर्षों बीत गए हैं फिर भी मेरे
जेहन में ये सवाल बार-बार आकर ठहर जाता है कि आखिर क्यों हमारे इस समाज में आज भी
बेटियां सुरक्षित नहीं हैं? आज हम जब कभी भी अपने इस
प्रगतिशीत समाज का मूल्याङ्कन करने बैठते हैं तो हमारी बेटियों के साथ हो रहे
अत्याचार इसकी गतिशीलता और संवेदनशीलता दोनों पर सवालिया निशान खड़ा कर देते हैं।
यही नहीं 29 राज्यों वाले हमारे देश के प्रत्येक हिस्से से
हमें हर रोज हमारी बच्चियों के साथ घटित होने वाली अप्रिय घटनाओं की जानकारी
मीडिया व समाचार पत्रों के माध्यम से प्राप्त होती रहती है।
तो
हम ये सोचने पर विवश हो जाते हैं की आखिर क्यूँ सृष्टि में ईश्वर द्वारा रचित इस
अनमोल कृति को मानव रचित समाज में प्रवेश करने पर इतना सहना पड़ता है? क्यूँ हम बेटियों को
इस संसार में प्रविष्टि पाने से पहले ही उनका मार्ग रोक देते हैं? और जो प्रविष्टि पा लेती हैं उनका जीवन भी किसी न किसी तरह दूभर करने में
कोई कसर नहीं छोड़ते।
क्या ऐसा नहीं हो सकता कि हम सब मिलकर इस धरा पर इन बेटियों के लिए ऐसा परिवेश निर्मित कर दें कि हर बेटी गार्गी, अपाला, घोषा, लक्ष्मीबाई, सुनीता विलियम, कल्पना चावला की परंपरा का निर्वाहक बनें न कि अपने नयनो से बहते अश्रुओं को संभालने वाली वेदना का...
उदर
की वेदना अब,
चीत्कार कर रही है ।
नयनो की अश्रु धारा, विलाप कर रही है ।।
जीवन गति न रोक दे, विकास का अलाप ये ।
सचेतो अब मूर्धन्यों!
उदर की वेदना अब, चीत्कार कर रही है ।
चीत्कार कर रही है ।।
"कैलाश कीर्ति (रश्मि)" द्वारा रचित
भारत________विश्व के मानचित्र पर अंकित एक ऐसा राष्ट्र
जिसकी सशक्तता का इतिहास सदैव से साक्षी रहा है। सनातन काल से चली आ रही परम्पराओं
ने तो इसे विश्व गुरु की संज्ञा से भी अलंकृत कर रखा है परन्तु इन सब के बावजूद
क्या भारत का वर्तमान सही में ऐसा बन पा रहा है जो पुरानी परम्पराओं का निर्वहन
करने में समर्थ हो? ये प्रश्न शायद आज भी अनुत्तरित है
क्योंकि जिस भारत के विकसित होने का हम दम भर रहे हैं वो भारत ये भारत नहीं है
जहाँ आज भी इसके नागरिकों को अपने जीवन की मूलभूत आवश्यकताओं (रोटी, कपडा और मकान) में से एक रोटी की समस्या से जूझना पड़ रहा है।
हाल ही में आयी ग्लोबल हंगर की रिपोर्ट ने इस बात की प्रमाणिकता पर
अपनी मुहर भी लगा दी और इस तथ्य को पूर्णतया सत्य भी कर दिया कि कभी विश्व गुरु का
दर्जा पाने वाले भारत के वर्तमान में दो रूप हैं, एक तरफ का भारत
गगनचुम्बी इमारतों, चकाचौंध से भरी दुनिया का भारत है तो
वहीँ दूसरी तरफ का भारत इससे बिलकुल अलग गरीबी, भुखमरी और
बेकारी का भारत है।
असंतुलन का ऐसा भद्दा स्वरूप है ये जिसके आधार पर भारत के विश्व
पटल पर पुनः विश्व गुरु कहलाये जाने के प्रश्न पर ही एक सवालिया निशान लग जाता है।
ये कैसे समाज में हम रह रहे हैं जहाँ हम बुलेट ट्रेन और स्टैच्यू ऑफ़ यूनिटी की बात
करते हैं लेकिन वास्तविकता ये है कि देश की 2/3 आबादी को हम दो
वक़्त की रोटी तक दे पाने में सक्षम नहीं हैं।
कैसा विकास है ये? किसका विकास है ये? और किसके
लिए विकास है ये? जिसे हम हमारे देशवासियों के जीवन को जीवंत
रखने वाली दो वक़्त की रोटी के बदले छीन कर हासिल कर रहे हैं।
ऐसे में ये प्रश्न लाजिमी है कि आखिर हमारे देश को आज दरकार किसकी
है ________बुलेट ट्रेन की या फिर भूख से बिलख रहे देश वासियों के दो वक़्त के निवाले
की?